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निरीह शिक्षकों के सम्मान का दिन

तमाम दिवसों की तरह साल में एक दिन शिक्षकों के नाम भी है। आज के दिन विभिन्न स्तरों पर शिक्षकों को सम्मानित किया जाता है। स्वयंसेवी संस्थाओं से लेकर राज्य व केंद्र सरकार भी शिक्षकों पर मेहरबान होती...

निरीह शिक्षकों के सम्मान का दिन
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 04 Sep 2015 09:36 PM
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तमाम दिवसों की तरह साल में एक दिन शिक्षकों के नाम भी है। आज के दिन विभिन्न स्तरों पर शिक्षकों को सम्मानित किया जाता है। स्वयंसेवी संस्थाओं से लेकर राज्य व केंद्र सरकार भी शिक्षकों पर मेहरबान होती हैं। इधर बाजार ने भी इस अवसर के लिए कुछ खास उत्पाद तैयार किए हैं, जिन्हें छात्र अपने शिक्षकों को भेंट करते हैं और गुरुऋण से मुक्त होने का एहसास करते हैं। फोन, एसएमएस व तमाम इलेक्ट्रॉनिक माध्यम भी शिक्षक को सम्मानित करने के आसान उपाय मुहैया कराते हैं।

दुर्भाग्य की बात यह है कि इस दौर में परंपरा से मिलने वाला शिक्षकों का सम्मान कम हुआ है। एक वर्ग के रूप में शिक्षकों की सामाजिक स्वीकार्यता कम हुई है। उन्हें मोटी तनख्वाह पाने वाले गैर-जरूरी वर्ग के रूप में भी देखा जाने लगा है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि शिक्षकों ने वैचारिक अगुआ होने की क्षमता खो दी है। शिक्षकों की तनख्वाहें बढ़ी हैं और सुविधाएं भी, लेकिन उसी अनुपात में वैचारिक स्वतंत्रता छीजती चली गई है। इससे कल्पनाशीलता और नवोन्मेष के रास्ते भी बंद होते गए हैं।

प्राइमरी शिक्षकों के लिए जनगणना, बीपीएल कार्ड, मिड-डे मील से लेकर स्कूल की इमारत बनवाने तक इतने काम हैं कि वे भूल ही जाते हैं कि वे शिक्षक भी हैं। माध्यमिक शिक्षकों के लिए भी ऐसी औपचारिकताएं बढ़ी हैं कि शिक्षण गौण हो गया है। उच्च शिक्षा में थोड़ी-बहुत गुंजाइश थी। वहां भी शिक्षक को तरह-तरह की कागजी खानापूरी में उलझा दिया गया है। शिक्षक क्रेडिट का हिसाब-किताब करने, असाइनमेंट देखने और सेमेस्टर की कॉपियां जांचने में लगे रहते हैं। शायद हमारा सामाजिक ढांचा अब शिक्षक से मौलिक विचार और नवोन्मेष की उम्मीद ही नहीं करता।

सच्चा निरीह वह होता है, जो और कुछ करे या न करे, किसी का नुकसान न कर सके। शिक्षक इस कसौटी पर खरे उतरने लगे हैं। कभी-कभी लगता है कि  शिक्षकों का सम्मान उनकी निरीहता के लिए ही होता है। एक समूह के रूप में शिक्षक को निरीह व सामाजिक प्रक्रिया से अलग-थलग रखना ही हमारे मौजूदा सामाजिक ढांचे के लिए उपयुक्त है। स्वस्थ और लोकतांत्रिक समाज में शिक्षक की भूमिका बुद्धिधर्मी की होती है। सच्चे शिक्षक को सच कहना ही नहीं, उसे बरतना भी चाहिए। दुर्भाग्य से हम इतने विकसित नहीं हुए कि सच सुन सकें। हम सच नहीं, मनोनुकूल सुनना चाहते हैं। शिक्षक से भी यही अपेक्षा रहती है। इसीलिए हमारी शिक्षण संस्थाओं में सच की गुंजाइश खत्म हो गई है।

अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने अपने बेटे के शिक्षक को लिखे पत्र में कहा था कि आप इसे ऐसी शिक्षा दीजिए कि अकेले पड़ जाने पर भी उसमें सच कहने का साहस हो, और वह गलत लोगों व गलत बातों का विरोध कर सके। क्या हम अपने शिक्षकों से ऐसी अपेक्षा कर पाने की स्थिति में हैं?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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