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अचूक अवसरवादी कविता का समय

समय कवि से परेशान है और कवि समय से परेशान है। इस परेशानी में परेशानी परक साहित्य पैदा हो रहा है। कोई इसे समय को 'कठिन' बताता है, फिर भी 'इस कठिन समय में' कविता करके एहसान किए जाता है। कोई समय को पतित...

अचूक अवसरवादी कविता का समय
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 23 May 2015 09:26 PM
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समय कवि से परेशान है और कवि समय से परेशान है। इस परेशानी में परेशानी परक साहित्य पैदा हो रहा है। कोई इसे समय को 'कठिन' बताता है, फिर भी 'इस कठिन समय में' कविता करके एहसान किए जाता है। कोई समय को पतित बताता है, बिना स्वयं पतित हुए लिखता जाता है- 'इस पतित समय में साहित्य।' साहित्य का दृश्य विचित्र है। कोई कवि अपनी कविता में अपने समय से संवाद कर रहा है,  तो कोई समय से बातचीत कर रहा है, कोई समय के साथ चल रहा है, तो कोई समय को दर्ज कर रहा है। कोई समय में जी रहा है, कोई अपनी कविता से अपने समय में हस्तक्षेप कर रहा है, तो कोई अपने समय से मुठभेड़।

जैसा हाल इस समय 'समय' का है, वैसा ही कुछ पहले 'युग' का था। फिर 'दौर' का सदुपयोग होने लगा। और कुछ पहले तक 'समकालीन' व 'समकालीनता' का बोलबाला था। तब हर आइटम समकालीन हुआ करता था, हर साहित्य की समकालीनता पूछी-बताई जाती थी। उसके बाद 'युग' ने पदार्पण किया। हर जगह 'ये और इनका युग' 'वे और विनका युग', 'तिनका युग और तिनकी कविता' लिखा जाता। बहुत से 'युग के निर्माता' हो गए। युग के चक्कर में कई पीएचडी हो गए, कई डीलिट् भी ले आए! 'युग' ठिकाने लग गया, तो 'दौर' का 'दौर-दौरा' शुरू हुआ। इस 'दौर' में कभी 'साहित्य का यह दौर' होने लगता, कभी 'वह दौर' होने लगता, कभी 'हमारे दौर की कविता' होने लगती, कभी 'उनके दौर की' होने लगती। 'इस दौर की कविता' में कब 'उस दौर की कविता' मिल जाती, कब उस दौर की कविता इस दौर में आकर पागुर करने लगती, समझ में नहीं आता।

इसी तरह, आजादी मिलने के बाद साहित्य में 'वर्ग संघर्ष' शुरू हुआ। बहुत दिनों तक 'वर्ग संघर्ष' 'वर्ग संघर्ष' ही होता रहा। और इतना हुआ कि छीना-झपटी में 'वर्ग' शब्द छूट गया और सिर्फ संघर्ष' रह गया। बाद में यह संघर्ष इतना अधिक हो गया कि न कविता बची, न कहानी। जिसे देखो संघर्ष करता मिलता। गांव की बीवी छोड़ दिल्ली में दूसरी करता, तो यह कहता कि 'संघर्ष' कर रहा हूं। संघर्ष से निपट लिया गया, तो उसकी जगह 'समय' चलन में आ गया। वह जब से आया है, तब से जिसे देखो, वही आदमी 'समय-समय' करता फिरता है। कोई समय से बातचीत कर रहा दिखता है, तो कोई समय से संवाद करता दिखता है। समय पर कभी न पहुंचने वाले तक समय पर समय से ये, समय से वो करते रहते हैं। पंडितों का मानना है कि हिंदी में 'समय' दो चीजों के कारण 'असमय' चलन में आया। एक रही हॉकिंग की किताब, जो टाइम के इतिहास को समझाती थी। हो सकता है कि हिंदी के नक्कालों ने उसे वहीं से तड़ा हो, लेकिन कुछ पंडितों का कहना है कि शायद ऐसा न भी हो।

हिंदी वाले अंग्रेजी की कविता-कहानी तड़ा करते हैं, दार्शनिक टाइप किताबें तड़ने में संकोच करते हैं। इसीलिए साहित्य के पंडित बताते हैं कि हो न हो, हिंदी साहित्य पर बीआर चोपड़ा की हिट फिल्म वक्त का असर पड़ा गया हो। उसके उस प्रगतिशील टाइप गाने का असर पड़ा हो, जो कहता रहता है कि आदमी को चाहिए वक्त से बचकर रहे, कौन जाने किस घड़ी वक्त का बदले मिजाज। समय को भी एक दिन घिसना था। घिस गया। फिर जो चलन में आया, वह 'अवसर' था। इस दौर में कुछ सामान्य अवसरवादी हुए, कई अचूक अवसरवादी हुए। तो बताइए कि इस समय का नंबर वन का अचूक अवसरवादी कौन है?

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