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अंकों का अर्थशास्त्र और उम्मीदें

क्या किसी ने भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू से 15 अगस्त, 1948 को पूछा था कि अपनी हुकूमत के पहले साल में आपने क्या किया?  हो सकता है, कुछ सवाल उठे हों, पर यह सच है कि देश के...

अंकों का अर्थशास्त्र और उम्मीदें
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 23 May 2015 09:33 PM
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क्या किसी ने भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू से 15 अगस्त, 1948 को पूछा था कि अपनी हुकूमत के पहले साल में आपने क्या किया?  हो सकता है, कुछ सवाल उठे हों, पर यह सच है कि देश के अधिकांश लोग उस समय यही सोचते थे कि नेहरू फिलहाल बुनियाद रखने का काम कर रहे हैं। नरसिंह राव के समय तक कमोबेश ऐसा सिलसिला चलता रहा। इसका यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि वे ठिठके और ठहरे हुए दिन थे। इसी दौरान हमने बैलगाड़ी से रॉकेट तक यात्रा तय की और 'हरित क्रांति' जैसी बड़ी उपलब्धियां हासिल कीं। तब और अब में फर्क बस इतना है कि समाज में आज जैसा उतावलापन नहीं था। उन दिनों विपक्ष सिर्फ विरोध के लिए हल्ला नहीं मचाता था और सत्ता में बैठे लोग इतने असंयमित नहीं होते थे। 'सोशल मीडिया' का जन्म नहीं हुआ था और खबरिया चैनल के चरण भारत में नहीं पड़े थे। शुरू में आकाशवाणी और आगे चलकर दूरदर्शन से भी खबरें प्रसारित होने लगीं, लेकिन उन पर सूचना-प्रसारण मंत्रालय का हक-हुकूक होता था। अखबार स्वतंत्र थे, पर उनकी प्रसार संख्या आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ी। अब समय 'फास्ट-फूड' की तरह तुरत-फुरत परिणामों का है, जबकि देश चलाने के लिए दूरगामी सोच और दूरदर्शी फैसलों की जरूरत होती है।

हुक्मरानों के फैसले अक्सर बरसों बाद अपना रंग दिखाते हैं। एक उदाहरण। आजादी मिलते ही जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने निर्णय किया कि हम सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच चल रहे शीत युद्ध में किसी का साथ नहीं देंगे। उन्होंने गुट-निरपेक्षता की नीति अपनाई और इसके जरिए भारत का अलग मुकाम बनाने की कोशिश की। इसके उलट पाकिस्तान ने अमेरिका का खुलकर साथ देने की ठानी। नतीजा सामने है। अमेरिकी इमदाद के कारण वहां भ्रष्टाचार और काहिली व्याप्त हो गई। इससे लोकतंत्र को धक्का लगा और सेना सत्ता तंत्र पर हावी हो गई। इधर, अपनी नई रहगुजर विकसित करते हुए भारत ने उन पश्चिमी देशों का मान-मर्दन करने में सफलता हासिल की, जो मानते थे कि इस जाहिल देश के लिए जम्हूरियत नहीं जन्मी है। इसे सिर्फ डंडे से हांका जा सकता है। इसी तरह, इंदिरा गांधी ने जब सोवियत समाजवाद से प्रभावित होकर बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया और चौतरफा सरकारीकरण को हवा दी, तब उन्हें इल्म नहीं रहा होगा कि 20-25 साल में दुनिया इतनी बदल जाएगी कि उन्हीं की पार्टी के एक प्रधानमंत्री नरसिंह राव को आर्थिक खुलेपन का सहारा लेना पड़ेगा।

नेहरू की गुट-निरपेक्षता ने जहां देश को लाभ पहुंचाया, वहीं उनकी पुत्री के राष्ट्रीयकरण अभियानों ने क्षति पहुंचाई। पहली सरकार के पंचशील को समकालीनों ने अचरज और इंदिरा के सरकारीकरण को मुग्ध भाव से देखा था। वे लोग नहीं जानते थे कि आने वाला वक्त उन्हें गलत साबित करने वाला है। इसीलिए नरेंद्र मोदी की सत्ता का पहला साल पूरा होने पर उनके फैसलों पर तुरत-फुरत कोई निर्णय नहीं सुना देना चाहिए। इतने बड़े देश में अपने वायदों और सपनों को पूरा करने के लिए एक साल का वक्त बहुत ज्यादा नहीं होता। हालांकि, यह भी सच है कि पांच साल के लिए चुनी गई उनकी सरकार दो दिनों के अंदर अपना 20 फीसदी सफर पूरा कर लेगी। इस दौरान मोदी ने कैसे बीज बोए और कैसी फसल उगेगी, इस पर चर्चा बेमानी नहीं होगी। कृपया याद करें। नरेंद्र मोदी ने सत्ता सम्हालते ही अपने मंत्रियों पर प्रतिबंध लगा दिया कि वे अपने स्टाफ में किसी सगे-संबंधी को जगह नहीं देंगे।

भारतीय सत्ता तंत्र के भाई-भतीजावाद से परेशान लोगों के लिए यह सुकून देने वाला फैसला था। इसी तरह, सरकारी बाबुओं पर भी लगाम कसी गई। मैंने अतीत में केंद्रीय सचिवालय के लॉन में सरकारी कर्मियों को बड़ी संख्या में पसरे हुए देखा है। वे कुरसी पर कोट टांगकर गप लड़ाने चले जाते थे। मोदी ने आते ही इस पर लगाम लगाई। अधिकारियों और कर्मचारियों की जिम्मेदारियां तय की गईं। इसके साथ ही आला अफसरों को खुलकर काम करने का अभयदान दिया गया, ताकि उनके कामकाज में बेवजह राजनीतिक दखलंदाजी न हो। प्रधानमंत्री कार्यालय में इस तरह के सेल गठित किए गए, जो विभिन्न मंत्रालयों के कामकाज की समीक्षा करते हैं। हम बरसों से भाई-भतीजावाद, अकर्मण्यता और राजनीतिक दखल का रोना रोते आए हैं।

नरेंद्र मोदी ने इस पर अंकुश लगाने की कारगर कोशिश की। उन्होंने खुद को मिसाल के तौर पर पेश करने का भी प्रयास किया। बरसों बाद नॉर्थ ब्लॉक में एक ऐसा प्रधानमंत्री आया, जो सुबह से लेकर आधी रात तक काम करता रहता है। भारतीय लोकतंत्र के इस दुर्गुण पर लोग तंज कसते थे कि हमारे नेता सत्ता सदनों में पहुंचते ही खुद को जनता से काट लेते हैं। मोदी ने 'मन की बात' के जरिए देश के लोगों से संवाद स्थापित करने का प्रयास किया। पिछले एक साल में वह सात बार रेडियो के जरिए लोगों से रूबरू हो चुके हैं। अपने हर उद्बोधन में वह आम लोगों के पत्रों और उनके सुझावों का उल्लेख करते हैं। जाहिर है, वह यह जताना चाहते हैं कि मैं जनता के प्रति सीधा जवाबदेह हूं।

यही नहीं, उन्होंने विदेश नीति के मामले में 'लकीर का फकीर' बने रहने से इनकार कर दिया। उन्होंने कूटनीति की नई परिभाषा गढ़ने की कोशिश की और संसार के सबसे शक्तिशाली नेताओं के समकक्ष जा खड़े हुए। कहते हैं कि जी-20 शिखर सम्मेलन के दौरान उन्होंने बाकी सत्ता नायकों को इस बात के लिए प्रेरित किया कि वे अनौपचारिक तौर पर कुछ देर के लिए संसार की रीति-नीति पर बात करें। इस बैठक से विभिन्न नेताओं के साथ गए दुभाषिए हटा दिए गए और सिर्फ मेजबान देश के कर्मियों की मदद ली गई। मजलिस बैठने से पहले ही तय कर लिया गया कि इस अनौपचारिक बातचीत में 'महामहिम' जैसे घिसे-पिटे संबोधनों का इस्तेमाल नहीं किया जाए। हर नेता एक-दूसरे को पहले नाम से बुलाएगा। कूटनीति के पुराने चौकीदारों को यह नागवार गुजर सकता है, पर यह सच है कि इससे नई परंपरा की शुरुआत हुई।

जिस तरह कूटनीति के परंपरावादियों को यह रंग-ढंग अखरा, वैसे ही नरेंद्र मोदी की कार्यशैली पर भी सवाल उठाए गए। उन्होंने मंत्रियों और सचिवों के पेच कसे, तो आरोप उछलने लगे कि प्रधानमंत्री कार्यालय तानाशाही पर आमादा हो गया है। किसी को लगता है कि मंत्रियों को और ज्यादा अधिकार देने चाहिए, तो कोई नौकरशाहों के वर्चस्व की शिकायत करता नजर आता है। लोकतंत्र में सवाल उठने अच्छे हैं और अक्सर अनर्गल आरोप भी नेताओं को रास्ता दिखाते हैं। अब्राहम लिंकन अपने खिलाफ छपी खबरों की कतरनों को संभालकर रखते थे और समय मिलते ही उन पर नजर डालना नहीं भूलते थे। इससे उन्हें खुद को बेहतर बनाने की प्रेरणा मिलती थी।

नरेंद्र मोदी भी यकीनन यह जानते होंगे कि अपने ऊपर उछल रहे आरोपों का एकमात्र उत्तर है- जनहितकारी नतीजे। इस देश ने उन्हें प्रचंड बहुमत से कुछ निश्चित उम्मीदों के साथ सत्ता सौंपी है। अब उनके पास इन उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए पांच में से सिर्फ चार साल बचे हैं। उन्हें जो करना है, जल्दी करना होगा। 
@shekharkahin
shashi.shekhar@livehindustan.com

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