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यह लेखक की अपनी आवाज है

साहित्य अकादेमी के समूचे जीवनकाल में ऐसा संकट नहीं आया था, जैसा अब आया है। इस संकट को बढ़ाने में अकादेमी ने भी अपना मुखर योगदान दिया है। पूरी आशंका है कि यह संकट और गहरा हो जाए। इतने सारे लेखकों ने...

यह लेखक की अपनी आवाज है
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 12 Oct 2015 10:05 PM
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साहित्य अकादेमी के समूचे जीवनकाल में ऐसा संकट नहीं आया था, जैसा अब आया है। इस संकट को बढ़ाने में अकादेमी ने भी अपना मुखर योगदान दिया है। पूरी आशंका है कि यह संकट और गहरा हो जाए। इतने सारे लेखकों ने साहित्य अकादेमी पुरस्कार लौटाए हों, यह पहले कभी नहीं हुआ। अगर अकादेमी के कर्ता-धर्ता कुछ विनम्रता और संवेदनशीलता का परिचय देते, तो उसकी गरिमा बचाई जा सकती थी। लेकिन उन्होंने जिस स्तर पर लेखकों के विरोध को खारिज किया है, उससे उन लेखकों का नहीं, बल्कि साहित्य अकादेमी का सम्मान रसातल में पहुंच गया है।

लेखकों के विरोध के विरोध में भी तीन तरह की बातें की जा रही हैं। पहले किस्म के तर्क वे हैं, जो सत्तारूढ़ पार्टी और विचारधारा के लोग दे रहे हैं कि ये लेखक अंग्रेजी दां, पश्चिमपरस्त और सुविधाभोगी हैं, जो भारतीय संस्कृति और धर्म के खिलाफ हैं। दूसरी तरफ, साहित्यिक क्षेत्रों में इस विरोध को या तो अवसरवादी और प्रचार पाने के लिए बताया जा रहा है, या कहा जा रहा है कि यह सुरक्षित किस्म का विरोध है, जिससे न किसी को खतरा है, न उससे कुछ होने वाला है। विरोध का एक स्वर यह भी है कि साहित्य अकादेमी स्वायत्त संस्था है, जिसका मौजूदा अनुदार व हिंसक माहौल से कतई कोई लेना-देना नहीं है। यह भी कहा जा रहा है कि अगर उदार और प्रगतिशील लेखक अकादेमी को छोड़ देंगे, तो वहां अनुदार और दक्षिणपंथी लोगों के लिए खुला मैदान हो जाएगा।

एक स्वर अकादेमी के अध्यक्ष का है, जिनका कहना है कि पुरस्कार तो वापस ही नहीं किया जा सकता, क्योंकि ऐसा कोई प्रावधान ही नहीं है। फिर साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिलने के बाद लेखक को जो ख्याति मिलती है, उसे जो अन्य लाभ मिलते हैं, उनका क्या? साहित्य अकादेमी पुरस्कृत किताबों को अनेक भाषाओं में छपवाती है, उसे कैसे वापस किया जाएगा? यह लगभग वैसा ही तर्क है, जैसे एक फिल्म में अमिताभ बच्चन पूछते हैं कि क्या तुम मेरा बचपन मुझे लौटा सकते हो, मेरा परिवार लौटा सकते हो, जो दिन मैंने जेल में बिताए, उन्हें लौटा सकते हो? जाहिर है, लेखक के पास ऐसी कोई विधि नहीं है, जिससे वह पुरस्कार पूर्व की स्थिति में पहुंच जाए और प्रतिष्ठित वरिष्ठ रचनाकार से फिर युवा, संभावनाशील लेखक बन जाए।

लेखक अवसरवादी हो सकते हैं, या होते भी हैं, ख्याति पाने के इच्छुक भी हो सकते हैं। पुरस्कारों और विदेश यात्राओं के लिए जुगाड़ भी लगाते हैं और हम सब इन सारी बातों का खूब मजाक भी उड़ाया करते हैं। पर यह कभी नहीं हुआ कि साहित्य देवदूतों की बस्ती रहा हो। लेखक इंसान होता है और उसमें इंसानों वाली, बल्कि आम इंसानों से कुछ ज्यादा कमजोरियां भी होती हैं। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि रचनाशील लोगों में कुछ ज्यादा कमजोरियां होती हैं। ऐसा नहीं था कि ज्यां पॉल सार्त्र में कोई कमजोरी नहीं थी या वह फ्रांस की साहित्यिक राजनीति में सक्रिय नहीं थे।

उनकी राजनीतिक-साहित्यिक मान्यताओं पर भी सवाल उठाए जा सकते हैं, जिनमें से काफी मान्यताएं नोबेल पुरस्कार कमेटी को लिखे पत्र में भी व्यक्त होती हैं। लेकिन इससे नोबेल पुरस्कार लौटाने के उनके फैसले का महत्व कम नहीं होता। साहित्य का समाज नैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक रूप से काफी घालमेल वाला, मिश्रित और अशुद्ध होता है और यह हमारा अनुभव है कि इसमें से बुरा, औसत, अच्छा और महान, तरह-तरह का साहित्य पैदा होता है। इसलिए हम ऐसा नहीं कह सकते कि जब तक साहित्यिक परिदृश्य और साहित्यकार अपने को नैतिक रूप से पूरी तरह उजला नहीं सिद्ध कर देंगे, तब तक हम उनकी सही बात को भी नहीं मानेंगे।

यह भी हम जानते हैं कि मौजूदा स्थिति में इन लेखकों के विरोध का कोई खास असर नहीं होगा। लेखकों का असर या तो परंपरागत समाजों में होता है, जहां लेखकों को खासकर कवियों को समाज की वाणी माना जाता है या फिर उन्नत लोकतांत्रिक समाजों में होता है, क्योंकि वहां भले ही साहित्य पढ़ने वाले लोग कम हों, लेकिन यह एक लोकतांत्रिक मूल्य माना जाता है कि लेखकों और उनकी बात का सम्मान किया जाए। हमारा समाज इन दोनों में नहीं आता। केरल, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल या महाराष्ट्र, कुछ ऐसे क्षेत्र हैं, जहां लेखक का सामाजिक असर कुछ हद तक होता है, वरना देश के ज्यादातर  हिस्सों में लेखक की कोई खास पहचान नहीं होती। लेखक की बात का असर इस बात पर भी निर्भर होता है कि सत्ता प्रतिष्ठान या बड़े नेता लेखकों की बातों का कितना सम्मान करते हैं, लेकिन जब सत्ता प्रतिष्ठान लेखकों, कलाकारों, विद्वानों, बल्कि किसी भी किस्म की बौद्धिक गतिविधि की पूरी तरह उपेक्षा करने पर तुला हो, तो विरोध का कितना असर होगा? बल्कि विरोध की एक बड़ी वजह ही बौद्धिकता और विवेक की ऐसी उपेक्षा हो, तो क्या किया जा सकता है? लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि विरोध न किया जाए, क्योंकि यह विरोध एक नैतिक रुख है और नैतिकता का संबंध अपने अंतर्मन के साथ होता है, वह हानि-लाभ का आकलन करके नहीं किया जाता।

भारत के सांस्कृतिक-सामाजिक परिदृश्य में लगातार संकीर्णता और असहिष्णुता बढ़ रही है। जो जगह बहस और तर्क की है, उसे बाहुबल और हिंसा से भरा जा रहा है। विविधता और मतभेद किसी भी समाज को आगे बढ़ाने वाले रचनात्मक तत्व हैं, लेकिन अब किसी भी किस्म की विविधता और मतभेद को राष्ट्र व समाज विरोधी करार देकर कुचला जा रहा है। कर्नाटक और महाराष्ट्र में विद्वानों की उनके विचारों के लिए हत्या हो या उत्तर  प्रदेश में एक बढ़ई की गोमांस खाने की अफवाह पर हत्या हो, ये उस बढ़ती हुई हिंसक संकीर्णता के लक्षण हैं। यह लगातार बढ़ती जा रही है और सत्ता प्रतिष्ठान या तो उसे नजरअंदाज कर रहा है या फिर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से प्रोत्साहित। साहित्य के मूल्य उदार, बहुलतावादी, सहिष्णु व मानवीय होते हैं।

ऐसे में, साहित्यकार अगर अपनी नैतिक आपत्ति दर्ज करवाते हैं, तो वे अपना लेखकीय और मानवीय कर्तव्य निभा रहे हैं। बात दूर तक जाए या न जाए, पर बात कही जानी जरूरी है। हिंसक भीड़ यह तय करने लगे कि कौन क्या लिखे, कौन क्या पढ़े, कौन सा संगीत सुने, कौन सी फिल्म देखे, क्या खाए और क्या न खाए, तो इसका विरोध तो किया ही जाना चाहिए।

लेखकों की अपनी-अपनी राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक समझ होती है और उसके हिसाब से वे अपने समाज को समझने की कोशिश करते रहते हैं। आधुनिक भारत के इतिहास में आपातकाल के बाद यह दूसरी बार ऐसा हुआ है कि विविधता और मतभिन्नता की आजादी को बड़ी चुनौती मिली है।

आपातकाल का दौर विचारधाराओं का दौर था और उस दौरान ज्यादातर लेखक अपनी-अपनी विचारधारा की लड़ाई लड़ते रहे, कम ही लेखक थे, जिनके लेखन में आपातकाल के वास्तविक संकट की पहचान हुई। अब भी कई लेखकों की विचारधाराएं हैं, लेकिन सत्तर या अस्सी के दशक के भ्रम खत्म हो गए हैं, उन तमाम भ्रमों ने लेखकों को उनकी लड़ाइयों और उनकी अपनी स्थिति के बारे में भी गुमराह कर रखा था। लेकिन यह शायद पहला सीधा टकराव  है, जिसमें लेखक अपने भ्रमों के कवच-कुंडल को उतारकर अपनी वास्तविक हैसियत और लड़ाई को देख रहा है।
यह लड़ाई किसी काल्पनिक क्रांति के लिए नहीं, लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए है। उसके पास कोई युद्ध का बिगुल नहीं, नैतिकता की एक आवाज है, जिसकी शायद कोई ताकत न हो, लेकिन जिसका होना ही लेखक का अस्तित्व है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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