फोटो गैलरी

Hindi Newsनाराज क्यों हैं गुजरात के पटेल

नाराज क्यों हैं गुजरात के पटेल

पटेल समुदाय, के प्रदर्शन और उसके नौजवान नेता हार्दिक पटेल ने विकास के गुजरात मॉडल पर कुछ परेशान करने वाले सवाल खड़े किए हैं। इसे सिर्फ स्थानीय विरोध प्रदर्शन मानकर खारिज कर देना शायद ठीक नहीं...

नाराज क्यों हैं गुजरात के पटेल
लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 02 Sep 2015 09:58 PM
ऐप पर पढ़ें

पटेल समुदाय, के प्रदर्शन और उसके नौजवान नेता हार्दिक पटेल ने विकास के गुजरात मॉडल पर कुछ परेशान करने वाले सवाल खड़े किए हैं। इसे सिर्फ स्थानीय विरोध प्रदर्शन मानकर खारिज कर देना शायद ठीक नहीं होगा।

हाल ही में हुए पटेल समुदाय के प्रदर्शन और उसके नौजवान नेता हार्दिक पटेल ने विकास के गुजरात मॉडल पर कुछ परेशान करने वाले सवाल खड़े किए हैं। इसे सिर्फ स्थानीय विरोध प्रदर्शन मानकर खारिज कर देना शायद ठीक नहीं होगा। पटेल गुजरात का खुशहाल समुदाय माना जाता है और अब इस समुदाय के लोग खुद को अन्य पिछड़े वर्ग में शामिल किए जाने की मांग कर रहे हैं। ऐसी मांग सिर्फ पटेल ही नहीं कर रहे। उत्तर प्रदेश, हरियाणा व राजस्थान के जाट भी यही मांग कर रहे हैं। यही नहीं महाराष्ट्र में मराठा भी यही मांग कर रहे हैं। दूसरी तरफ गूजर समुदाय के लोग यह मांग कर रहे हैं कि उन्हें आरक्षण के लिए अन्य पिछड़े वर्ग से हटाकर अनुसूचित जनजाति में शामिल कर दिया जाए।

पटेल, मराठा और जाटों में काफी समानताएं हैं। ये तीनों ही परंपरागत तौर पर खेतिहर जातियां हैं और अपने-अपने इलाके में कृषि योग्य जमीन के मालिक भी हैं। जाट भारत की हरित क्रांति के अगुवा रहे हैं, तो देश में श्वेत क्रांति का श्रेय पटेलों की मेहनत को दिया जाता है। चाहे कपास हो या गन्ना मराठों की खेती की कुशलता जग प्रसिद्ध है। इन जातियों को बहुत पहले ही सफलता मिल गई थी, इसलिए खेती करने वाले सबसे स्मृद्ध किसान इन्हीं जातियों में हैं।

इसी वजह से ये तीनों जातियां जिन इलाकों से आती हैं, उनमें औद्योगिक गतिविधियां और आमदनी भी अन्य इलाकों के मुकाबले ज्यादा है। इसी की वजह से उन्हें काफी हद तक राजनीतिक कामयाबी भी मिली है। इन कामयाबियों के बावजूद ये किसान जातियां सड़कों पर क्यों उतर आई हैं? क्यों वे सरकारी नौकरियों में आरक्षण मांग रही हैं?

अगर उन्हें अन्य पिछड़ी जातियों की श्रेणी में रख भी लिया जाता है, तब भी उन्हें कुछ सरकारी नौकरियां और सरकारी शिक्षा संस्थाओं में दाखिले जैसी सुविधाएं ही तो मिलेंगी। संगठित सरकारी क्षेत्र में तो नौकरियां वैसे ही कम हो रही हैं। साल 2001 के मुकाबले 2011 में इस क्षेत्र में रोजगार के अवसर 16 लाख कम हो गए। इसलिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण से बहुत फर्क नहीं पड़ने वाला। असल मुद्दा ज्यादा गंभीर है, जो हमारे ग्रामीण क्षेत्र और खासकर कृषि क्षेत्र की खस्ताहाली को बताता है।

कृषि क्षेत्र में जो संकट है, उसे अब हर कोई जानता है। इस साल के सूखे से कोई ज्यादा फर्क पड़ने वाला नहीं है, देश के किसान काफी लंबे समय से परेशानी में हैं।  यह ठीक है कि संकट हमारे सामने तब आता है, जब कभी सूखा पड़ता है, बेमौसम बारिश होती है या फिर दुनिया के बाजारों में चीजों के दाम गिरने लगते हैं, लेकिन यह संकट भीतर ही भीतर काफी समय से खदबदा रहा है, जो कृषि की बरसों तक अनदेखी का नतीजा है। किसानों की आत्महत्याओं की बढ़ती संख्या (जिसका जिक्र हार्दिक पटेल अपने भाषणों में भी करते हैं) बताती है कि हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था कितनी बुरी हालत में है।

ये वे समुदाय हैं, जो देश की कृषि क्रांतियों के अगले मोर्चे पर रहे हैं- चाहे वह हरित क्रांति हो (जाट), चाहे श्वेत क्रांति हो (पटेल) या फिर नगदी फसलों की क्रांति (मराठा और जाट)। इन समुदायों ने इन क्रांतियों का सबसे पहले फायदा उठाया है। लेकिन बाद के दौर में जो हुआ, उसने यह तय कर दिया कि कृषि कार्य से लगातार अच्छी आमदनी हासिल नहीं की जा सकती। हम सब जानते हैं कि बढ़ती आबादी और जमीन का रकबा कम होते जाने की वजह से कृषि में प्रति व्यक्ति आमदनी लगातार कम होती गई है। इस बीच उपज में वृद्धि की दर लगभग स्थिर रहने से कृषि से होने वाली आमदनी अपने उच्चतम बिंदु पर पहुंच गई है। इस सबकी वजह से किसानों में यह महत्वाकांक्षा पैदा हुई है कि वे कृषि कार्य को छोड़कर दूसरे काम-धंधों को अपनाएं।

बदकिस्मती से पूरी अर्थव्यवस्था और खासकर गैर-कृषि क्षेत्र रोजगार के पर्याप्त अवसर पैदा करने में नाकाम रहा है। जो थोड़े-बहुत रोजगार के अवसर पैदा भी हुए, वे भी बहुत निम्न-स्तरीय रहे हैं, जिसकी वजह से सरकारी नौकरियों की मांग बढ़ी है। यह निजी क्षेत्र और सरकारी क्षेत्र, दोनों की ही नाकामी है। लेकिन रोजगार के अवसरों की कमी इस कहानी का एक छोटा-सा ही हिस्सा है। इस बीच आगे बढ़ने के साधन भी बदल गए हैं। जब कृषि ग्रामीण अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार थी, तो जमीन की मिल्कियत और अच्छी खेती का हुनर स्मृद्ध होने की गारंटी थे। अब जमीन की मिल्कियत किसान की भावी पीढि़यों की खुशहाली के लिए पर्याप्त नहीं लगती। इसीलिए नई पीढ़ी की कृषि में दिलचस्पी नहीं है। नई अर्थव्यवस्था में आपके पास जमीन होना उतना महत्वूपर्ण नहीं है, जितना कि शिक्षा और कुछ दूसरे हुनर का होना। इसीलिए शिक्षा संस्थाओं में आरक्षण की मांग हो रही है, क्योंकि उसे नई अर्थव्यवस्था में कामयाबी का औजार माना जा रहा है।

आंकड़े बताते हैं कि 2004-05 से लेकर 2011-12 के दौरान साढ़े तीन करोड़ लोगों ने दूसरे रोजगार की तलाश में कृषि कार्य को छोड़ दिया। मजदूरों की फौज में इस बीच जो नए लोग शामिल हुए, यह संख्या उससे अलग है। इसमें सबसे ज्यादा लोगों को विनिर्माण क्षेत्र ने सहारा दिया। अब इस कारोबार में मंदी का अर्थ है कि कृषि मजदूरों के लिए खुली यह खिड़की भी बंद हो रही है। विनिर्माण का काम कुछ लोगों को कुछ समय के लिए फौरी राहत दे सकता है, लेकिन असल सवाल उन पढे़-लिखे लोगों का है, जो बड़ी संख्या में रोजगार की तलाश में निकलना चाहते हैं। आर्थिक विकास की तेज दर अभी तक उनके लिए रास्ता बनाने में नाकाम रही है।

आरक्षण की यह मांग इतनी आसानी से खत्म होने वाली नहीं है। ग्रामीण क्षेत्रों के नौजवानों का असंतोष पहले ही उजागर हो चुका है। इन नौजवानों ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को सत्ता में पहुंचाया, क्योंकि उसने रोजगार और अवसरों का उनसे वादा किया था। लेकिन उसके बाद बनी सरकार इस मुद्दे पर गंभीर नहीं दिखाई दी। राजग सरकार ने कृषि क्षेत्र के संकट को भी नजरअंदाज कर दिया। आर्थिक सूचकांक भी अर्थव्यवस्था में नई जान आने का कोई संकेत नहीं दे रहे हैं।

पटेल समुदाय का प्रदर्शन न सिर्फ यह बताता है कि ग्रामीण क्षेत्र में हालात कितने खराब हैं, बल्कि यह इसे दुरुस्त करने की चेतावनी भी है। भूमि अधिग्रहण विधेयक पर सरकार के जिद छोड़ने का किसानों पर कुछ हद तक असर पड़ा होगा, लेकिन यह शांति ज्यादा टिकाऊ साबित नहीं होगी। अगर सबसे हुनरमंद और मेहनती किसान समुदाय परेशानी में है, तो इसका अर्थ है कि गड़बड़ी कहीं और है। यह गुजरात के विकास मॉडल की दिक्कत नहीं है, यह समस्या उस विकास मॉडल की है, जिसे देश ने पिछले तीन दशक से अपनाया हुआ है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें