आस्था और आत्मबल
छोटे बच्चे प्राय: अपने हमजोलियों के खिलौनों को देखकर कह उठते हैं, ‘काश! ये मेरे पास होते।’ बचपन में पैदा हुआ यह भाव बड़े होने पर भी बना रहता है। यह ‘काश’ शब्द जीवन में अभावों...
छोटे बच्चे प्राय: अपने हमजोलियों के खिलौनों को देखकर कह उठते हैं, ‘काश! ये मेरे पास होते।’ बचपन में पैदा हुआ यह भाव बड़े होने पर भी बना रहता है। यह ‘काश’ शब्द जीवन में अभावों के प्रति निराशा की अनुभूति को और तीखा कर देता है। हताश होकर मनुष्य स्वयं को दोषी मानने लगता है। अपनी तुलना में दूसरों का उत्कर्ष हीन भावना व ईष्र्या को जन्म देता है।
यह मानसिकता मनुष्य को असंतुलित कर देती है। उसका आत्मविश्वास डगमगा उठता है। मन की इस डांवांडोल स्थिति को स्थिर करने के लिए अतीत से ध्यान हटाकर वर्तमान पर केंद्रित करना पड़ता है। अतीत में जो भी विकल्प सम्मुख थे, बहुत सोच-समझकर उनमें से चयन किया गया था। परिणाम हमारे मन के अनुकूल नहीं हुआ, तो हमारा क्या वश? कठिन परिस्थितियों का सामना करने के लिए आस्था व विश्वास के सहारे मनुष्य आत्मबल पा जाता है। महाभारत युद्ध के अंत में जब श्रीकृष्ण द्वारका लौट रहे थे, तो मार्ग में उन्हें ‘उतंक’ ऋषि मिले। वह लंबे समय तक तपस्या में लीन रहे थे, इसलिए विनाशक युद्ध के विषय में अनजान थे। श्रीकृष्ण ने विस्तार सहित सब बताया। ‘उतंक’ ने उन्हीं को दोषी ठहराते हुए कहा, ‘आपके रहते यह सब कैसे हो गया?’ श्रीकृष्ण ने उतंक ऋषि को शांत किया और कहा कि उन्होंने तो अंत-अंत तक संधि के लिए प्रयास किया, पर दुर्योधन नहीं माना। नियति ने युद्ध को अपरिहार्य कर दिया। वह स्वयं भी विवश हो गए थे। इस प्रकार, व्यवस्था के सामने सर्वशक्तिमान श्रीकृष्ण को भी झुकना पड़ा। इसलिए जीवन में जहां भी हमारी स्थापना हुई है, वहीं फलने-फूलने की चेष्टा करें। भगवान से प्रार्थना करें कि हे प्रभु, हमें इतनी शांति और धैर्य दो कि जिसे हम बदल नहीं सकते, उसे स्वीकार करें। इतना साहस दो कि जो बदल सके, उसके लिए प्राणपण से मेहनत करें और इतना विवेक दो कि हम, दोनों के अंतर को पहचान सकें।