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अस्सी से चलकर उपसंहार तक

अगर हिंदी विभाग मेरे लिए मुगले आजम का अकबर था, तो 'अस्सी' मेरा सलीम। एक कहता था- 'अनारकली, मैं तुझे जीने नहीं दूंगा', तो दूसरा कहता था- 'हम तुम्हें मरने नहीं देंगे।'अस्सी पर मेरे जीवन के 27 साल...

अस्सी से चलकर उपसंहार तक
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 23 May 2015 09:30 PM
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अगर हिंदी विभाग मेरे लिए मुगले आजम का अकबर था, तो 'अस्सी' मेरा सलीम। एक कहता था- 'अनारकली, मैं तुझे जीने नहीं दूंगा', तो दूसरा कहता था- 'हम तुम्हें मरने नहीं देंगे।'अस्सी पर मेरे जीवन के 27 साल गुजरे। वहीं रहकर पढ़ाई पूरी की, नौकरी शुरू की, शादी की, बच्चे पैदा किए। वहीं निराला, महादेवी, पंत को देखा, फिराक, कैफी आजमी, मकबूल फिदा हुसैन को देखा। वहीं रहते हुए दिनकर, यशपाल, जैनेंद्र, भुवनेश्वर, फणीश्वरनाथ रेणु, नागार्जुन, शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन आदि को तो देखा ही नहीं, सुना भी। तुलसीदास के मुहल्ले का वासी मैं इतना जड़मति तो था नहीं कि इतनी विभूतियों के दर्शन और श्रवण के बाद भी 'बुड़बक' रह जाता। मैंने अस्सी छोड़ा 1980 में- बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के लिए मन मारकर। जैसे ही विभाग से छूटता, पांव अपने आप अस्सी का रास्ता पकड़ लेते। लंका होते हुए अस्सी। आना-जाना छह किलोमीटर रोज।

जिस 'लोक' की कल्पना मैंने की थी, वह आया काशी का अस्सी में,  जो न कहानियों में आ पाया था, न संस्मरणों में। ग्लोबलाइजेशन हो चुका था, बाबरी मस्जिद ढहाई जा चुकी थी, मंडल आयोग लागू हो चुका था, नई सरकार बन चुकी थी, सोवियत संघ विघटित हो चुका था- ये सारी घटनाएं अमेरिका, रूस, दिल्ली या अयोध्या में नहीं, 'अस्सी' की चाय की दुकान में घट रही थीं। उपन्यास का पहला परिच्छेद देख तमाशा लकड़ी का इसी बदलाव की झांकी था और वह छपा था 1991 के हंस  में। इसके छपते ही 'अस्सी' पर हंगामा मच गया। रातोंरात ढाई-तीन सौ प्रतियां फोटोस्टेट होकर बंट गईं। वहां लोग मुझे अध्यापक के रूप में जानते थे,  कथाकार के रूप में नहीं। मेरी खोज शुरू हुई- 'साला मिले तो हाथ तोड़ दे, गोली मार दे...।' महीने भर हंगामा रहा। किसी रात संपादक राजेंद्र यादव का फोन आया- 'साले बनारसी, तू सो रहा है और मुझ पर धुआंधार गालियां पड़ रही हैं। बड़ा मजा आ रहा है। अब हीरो हो गया तू। दूसरा रिपोर्ताज जल्दी से जल्दी भेज। तुरंत।' पाठकों की प्रतिक्रिया मुझे मालूम हो रही थी, साहित्य-जगत की प्रतिक्रिया का पता नहीं। यह पता चली झांसी में।

शैलेंद्र सागर के 'कथाक्रम' में। राजेंद्र यादव मंच पर थे। शैलेश मटियानी ने चीखते हुए पूछा- तुमने देख तमाशा लकड़ी का  छापने की हिम्मत कैसे की? मेरी भी तलब हुई। यादव-शैलेश में बोलचाल बंद हो गई। उन्हीं दिनों जून की दुपहरिया में एक बजे मेरे घर एक आदमी आया- पसीने से तर-बतर। पिए हुए था। सोए से मुझे जगाया, बताया कि मध्य प्रदेश के बिलासपुर से आ रहा हूं- सीधे जीप से। लौटना है अभी। उसके हाथ में हंस  की प्रति थी। तहसीलदार था। मुझे देखकर देर तक हंसता रहा, फिर आंखें पोंछता हुआ बोला- मैं सिर्फ आपको देखने आया था और कोई बात नहीं। अस्सी देखते हुए लौट जाऊंगा बस। उपन्यास छपते-छपते साहित्यकारों को छोड़कर सारा माहौल बदल चुका था- अस्सी भी और अस्सी के लोग भी। जो भी बनारस आता, पप्पू की दुकान और पात्रों को देखने अस्सी जरूर जाता। काशी का अस्सी  'हिंदी' और 'साहित्य' से ज्यादा उन लोगों तक पहुंचा और पसंद किया गया, जिसे हम 'लोक' कहते हैं। 'लोक' शब्द को प्रेमचंद के संदर्भ में देखा जाना चाहिए, गुलशन नंदा, गुरुदत्त जैसे बाजारू लेखकों के संदर्भ में नहीं।

साहित्यकारों के बीच यह उपन्यास चर्चित, विवादित और निंदित जरूर रहा, उपेक्षित नहीं। उनकी आपत्तियां जितनी इसकी भाषा को लेकर रही हैं, उतनी ही इसके 'फार्म' को लेकर। उनका कहना रहा है कि इसमें बहुत भद्दी व फूहड़ गालियों और लोकोक्तियों की भरमार है। यह अस्सी की जबान भले हो, साहित्य में इनका प्रयोग उचित नहीं। इसे संस्मरण कह लो, रिपोर्ताज कह लो, चाहे जो कहो, पर उपन्यास मत कहो। इसमें न सुगठित कथानक है, न कोई नायक, न 'क्लाइमैक्स' उपन्यास की मान्य शर्तें पूरा नहीं करता। मुझे उनकी आपत्तियों से कोई ऐतराज नहीं। इसके बाद मेरा तीसरा उपन्यास रेहन पर रग्घू आया, जिसे 'साहित्य अकादेमी' पुरस्कार मिला। यह 'अस्सी' का ही पूरक था। मैंने नई सदी के विकास के ध्वंस का असर एक मुहल्ले पर तो देखा था, गांव बच गया था। मैं जिस कॉलोनी में रहता हूं, वह गांव से आए बूढ़े-बूढि़यों की ही कॉलोनी है। उनके बेटे-बेटी आज बेंगलुरु, हैदराबाद, मुंबई, जर्मनी, टोक्यो, न्यूयॉर्क में हैं, लेकिन उनकी आंखों से चमक गायब है। उनके मरने की खबर पड़ोस को तीन दिन बाद उनकी बदबू से चलती है। अभी हाल में मेरा पांचवां उपन्यास आया है उपसंहार। महाभारत के बाद के कृष्ण के जीवन पर। यह है उपसंहार मेरी अब तक की यात्रा का।

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