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खराब पुलिस तंत्र और अटके सुधार

भारत में बढ़ती हिंसक घटनाओं के लिए पुलिस की अक्षमता व उसका राजनीतिकरण काफी हद तक जिम्मेदार है। रोजाना की रिपोर्टें बताती हैं कि पुलिस वालों की निर्ममता, जबरन वसूली और अन्य अपराधों को अंजाम देने के...

खराब पुलिस तंत्र और अटके सुधार
लाइव हिन्दुस्तान टीमThu, 27 Aug 2015 10:26 PM
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भारत में बढ़ती हिंसक घटनाओं के लिए पुलिस की अक्षमता व उसका राजनीतिकरण काफी हद तक जिम्मेदार है। रोजाना की रिपोर्टें बताती हैं कि पुलिस वालों की निर्ममता, जबरन वसूली और अन्य अपराधों को अंजाम देने के मामले बढे़ हैं। पिछले साल देश भर में पुलिस के खिलाफ 47,774 शिकायतें आईं, जिनमें से सिर्फ 2,601 घटनाएं आपराधिक मुकदमों में तब्दील हुईं, सिर्फ 1,453 पुलिस वाले गिरफ्तार हुए, जबकि 20,126 शिकायतें फर्जी करार दी गईं।

साल 2014 में पुलिस पर मानवाधिकार उल्लंघन के 108 मामले दर्ज हुए, उनमें से 62 झूठे साबित हुए, जबकि सिर्फ तीन राज्य पुलिसकर्मी दोषी साबित हुए। इसी तरह, पुलिस हिरासत में 93 मौतें हुईं, 25 न्यायिक जांच कराई गईं और 26 पुलिसकर्मियों के खिलाफ आरोप-पत्र दाखिल किए गए। लेकिन एक पर भी अपराध साबित न हुआ। वहीं, दूसरी तरफ अपराध बढ़े (लंबित आईपीसी मामले हैं 9,48,073; नए मुकदमे- 2,851,563), अत: लाठीचार्ज की कार्रवाई भी अधिक हुई। इस संदर्भ में 2014 में 383 मामले दर्ज हुए, जिनमें 262 लोग जख्मी हुए या मारे गए। इस बीच सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस को, खासकर बिहार में प्रदर्शनकारी शिक्षकों पर, जिनमें शिक्षिकाएं ज्यादा थीं, लाठियां भांजने के 'अमानवीय आचरण' के लिए फटकार लगाई।

गौरतलब है कि 1857 के सिपाही विद्रोह को देखते हुए पुलिस अधिनियम-1861 को पारित किया गया था। वह कानून औपनिवेशिक सरकार की मदद के लिए एक वर्चस्व वाले पुलिस बल की स्थापना करता है। पुलिस अधिनियम की धारा-तीन के तहत राज्य पुलिस बलों की जिम्मेदारी राज्य सरकारों के पास है, जबकि जिला स्तर पर दोहरा नियंत्रण काम करता है।

पुलिस बल जिला पुलिस अधीक्षक के आदेशों के अंतर्गत काम करते हैं, लेकिन वे जिला मजिस्ट्रेट के 'दिशा-निर्देश' और 'सामान्य नियंत्रण' का विषय है। पुलिस अधिनियम की धारा- सात में देश की सामंती सोच समाई हुई है, जो निम्न पदों पर मौजूद पुलिस वालों को विश्वासपात्र और अधीन बने रहने की बात करती है। आजादी से काफी पहले से पुलिस अपने वरिष्ठ अधिकारियों और सियासी आकाओं के अलावा, किसी के प्रति जिम्मेदार नहीं थी।

आजादी के बाद भी यह व्यवस्था वैसी ही बनी रही। बॉम्बे पुलिस ऐक्ट-1951 समेत कई राज्य पुलिस अधिनियम पारित हुए, लेकिन इन सबकी बुनियाद में 1861 का वही विधान है, जो पुलिस बल को सुरक्षा कवच देता है। 1979 में राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन हुआ, जिसने कई सारे संशोधन सुझाए, लेकिन किसी को भी लागू नहीं किया गया, बावजूद इसके कि रिबेरो समिति (1999) व पद्मनाभैया समिति (2000) ने कई सुधारों की बात कही।

सुप्रीम कोर्ट ने प्रकाश सिंह केस (2006) में अपना फैसला सुनाते हुए राज्यों व केंद्र-शासित प्रदेशों को सात दिशा-निर्देशों के पालन के लिए कहा था। मुख्य दिशा-निर्देश थे- अनैतिक राजनीतिक हस्तक्षेप से पुलिस की दूरी, डीजीपी की नियुक्ति में पारदर्शिता, कानून-व्यवस्था व जांच-कार्यों के बीच विभाजन तथा शिकायत प्राधिकरण की स्थापना। हमेशा की तरह इनको लागू करने का काम धीमी गति से चल रहा है।

पुलिस बल को अराजनीतिक रखने के लिए इसके सांगठनिक ढांचे को समझना होगा। दरअसल, इसमें तबादले या पदोन्नतियां 'शर्तों' से जुड़ी हैं। ये बिकती भी हैं, जो इस सोच को बढ़ावा देती हैं कि किसी का हाथ सिर पर होना चाहिए। इससे अनिश्चितता पैदा होती है और पुलिस वाले हतोत्साहित भी होते हैं।

प्रत्येक पुलिस बल में पुलिस संस्थापना बोर्ड का गठन तबादले, नियुक्ति, पदोन्नति व अन्य सेवाओं में एक पारदर्शी व समान तरीका ला सकता है। इस बोर्ड में डीजीपी और तीन-चार वरिष्ठ अधिकारी होने चाहिए। भ्रष्टाचार और किसी के संरक्षण में आने जैसी घटनाओं को रोकने के लिए इस व्यवस्था को कानूनी दायरों में बांधना जरूरी है, खास तौर पर पुलिसकर्मियों की तैनाती से जुड़े फैसलों में जारी राजनीतिक हस्तक्षेप को देखते हुए।

डीजीपी का चयन यूपीएससी द्वारा चुने गए तीन वरिष्ठतम अधिकारियों के पैनल से होना चाहिए, जिसमें सेवाकाल, सर्विस रिकॉर्ड और अनुभव अहम आधार हों। अदालत ने डीजीपी, आईजीपी और डीआईजीपी के लिए कम से कम दो वर्ष का कार्यकाल तय कर रखा है, ज्यादा स्थिरता देने के लिए इसे चार साल तक किया जा सकता है। पुलिस कानून-1861 कहता है कि पुलिस का 'प्रबंधन' सरकार द्वारा हो। इससे पुलिस के रोजमर्रा के काम में नेताओं की बेमतलब की दखलंदाजी बढ़ी है।

आम धारणा यही है कि पुलिस काफी कुछ गलत करती है और अपनी ज्यादतियों के लिए मुआवजा देने या जिम्मेदारी लेने के प्रति उदासीन है। इसके अलावा, पूर्व-निर्धारित मापदंडों के मुकाबले पुलिस के प्रदर्शन का मूल्यांकन स्तरीय नहीं है। अपना प्रदर्शन सुधारने के लिए वह केस न दर्ज करके अपराध के आंकड़े घटा देती है।

वैसे, दुनिया भर के कानूनी दायरे में एक शिकायत-तंत्र होता है, जिसमें पुलिस के खिलाफ जन-शिकायतों की उचित व स्वतंत्र जांच सुनिश्चित करने के लिए संसाधन व अधिकारी होते हैं। हमें एक नया पुलिस शिकायत प्राधिकरण चाहिए, राज्य और जिला, दोनों स्तरों पर। यह प्राधिकरण इस अधिकार से संपन्न हो कि गंभीर कदाचार के मामले में यह आरोपी पुलिसकर्मी के खिलाफ गहन जांच करेगा।

इसमें कोई दोराय नहीं कि पुलिस बल के पास संसाधन कम हैं और वह काम के भारी बोझ तले दबा है। इनके जांच-कार्यों को देखिए, जिनमें खराब तैयारी और धीमी गति दिखती है, इनको चलाने वाले अप्रशिक्षित और अकुशल पुलिसकर्मी हैं। इसकी ज्यादातर मानव-शक्ति कानून-व्यवस्था की बहाली और राजनीतिक दायित्वों के निर्वाह में लगी होती है, इसलिए मुकदमों की जांच-पड़ताल में दशकों लग जाते हैं। प्रदर्शन सुधारने और विशेषज्ञता को प्रोत्साहित करने के लिए जांच-पड़ताल व कानून-व्यवस्था के बीच बंटवारा जरूरी है।

होना तो यह चाहिए कि ग्रामीण इलाकों में एक थाने का अधिकार-क्षेत्र बहुत बड़ा नहीं होना चाहिए। वहीं शहरी इलाके में आबादी के घनत्व को आधार बनाया जाए। अधिकतम 60,000 नागरिकों पर एक पुलिस स्टेशन हो। अगर कोई पुलिस स्टेशन सालाना 700 से ज्यादा अपराध दर्ज करता है, तो उस इलाके में एक और पुलिस स्टेशन बनाया जा सकता है। अगर आंकड़ा 900 से अधिक हो, तो उस आईपीसी कार्यालय को थानेदार के तौर पर एक उप-अधीक्षक भी दिया जाना चाहिए।  एक जांच अधिकारी को 50-60 मामलों से अधिक की जांच नहीं सौंपी जानी चाहिए। एक अखिल भारतीय पुलिस संस्थान बनाया जाना चाहिए, जो प्रस्तावित केंद्रीय पुलिस समिति द्वारा संचालित हो।

नागरिकों के प्रति दोस्ताना व्यवहार वाले पुलिस-तंत्र संबंधी सुधार अभी भारत में रुका हुआ है। यह एक मजबूत, केंद्रीकृत, राजनीतिक रूप से निष्पक्ष, सामाजिक व्यवस्था बहाल रखने वाले पुलिस बल की मांग करता है, जो शहरी अव्यवस्था और अपराध को रोके। आज के दौर में एक आदर्श पुलिस बल का मतलब है कि कानून पालन करने वाली जिम्मेदारियों से भी ज्यादा। जैसे, वह अपने अंदर सार्वजनिक स्वास्थ्य चिंताओं, शहरी योजना और मूल्यों की निगरानी को भी शामिल करता हो। जाहिर है कि इससे हमारा लोकतंत्र मजबूत होगा, और शासन-तंत्र के प्रति हमारा भरोसा भी बढ़ेगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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