कुछ चीजें किसी जलजले से नहीं हिलतीं
आपदा आती है, तो कइयों के घर उजड़ते हैं, पर कुछ की बांछें खिलती हैं। हमारे मोहल्ले में जब धरती कांपी, तो सबने उस रात कहर के अंदेशे में खुले पॉर्क में शरण ली। पुलिस तत्परता से गश्त लगाती रही,...
आपदा आती है, तो कइयों के घर उजड़ते हैं, पर कुछ की बांछें खिलती हैं। हमारे मोहल्ले में जब धरती कांपी, तो सबने उस रात कहर के अंदेशे में खुले पॉर्क में शरण ली। पुलिस तत्परता से गश्त लगाती रही, चौकीदार ‘जागते रहो’ की हांक। सुबह सही-सलामत लौटे, तो अधिकतर ने घर से नकदी, ज्वैलरी आदि को नदारद पाया। संकट के समय राहत का दिखावा हर प्रजातांत्रिक सरकार की विवशता है। इसी बहाने जनहित के कुछ काम भी हो जाते हैं। प्रशासन के कारिंदे आर्थिक हानि के आकलन में जुटते हैं। कितनों के घर गिरे, कितनों के मवेशी मरे। दीगर है कि कमीशन की राशि तय करती है कि कौन-सा खड़ा घर गिरा दिखाया जाए, कौन-सा जिंदा मवेशी मरा हुआ। यह तो सिर्फ नुकसान के अनुमान की कमाई है, राहत की रकम बंटने तक तो न जाने क्या-क्या गुल खिलेंगे।
घायल अस्पताल में हैं या रेलवे प्लेटफॉर्मों पर, कहना कठिन है। ट्रेन का अक्सर मुकर्रर वक्त से आना और जाना अप्रत्याशित दुर्घटना है। पर यह जो सांस की एक्सप्रेस गाड़ी है, इसका कुछ ठिकाना नहीं है। कई बार तो अपने मिनिस्टर जैसे डॉक्टर तक का इंतजार नहीं करती। जब तक परिजन, चिरौरी-विनती कर डॉक्टर को मनाएं-लाएं, वह अपने अनजाने लक्ष्य को कूच कर जाती है। यहां भी सिक्का बिचौलिए का चलता है। वह समर्पित समाज सेवक है।
यही वह अवसर है, जब संत-ज्ञानी जीवन की निस्सारता पर प्रभावी प्रवचनों से श्रद्धालुओं की स्वैच्छिक जेब-कटाई में जुटते हैं। ‘यह जो हाला-डोला है, ऊपर वाले का खेला है। इसमें रोकड़े का बही-खाता कतई बेकार है। पुण्य के स्थायी खाते में नाम दर्ज कराना है, तो हाथ खोलकर दान दो, वरना कोई नहीं जानता है कि विदाई की बेला कब आ जाए। कोठी, कपड़ा, कार, कैश सब यहीं धरा का धरा रह जाएगा। सिर्फ दान का पुण्य ही साथ जाना है।’ धार्मिक लफ्फाजी की लूट से उनका धंधा चमका है। करोड़ों की कमाई है। जो गए, वे सदा के लिए गए हैं। जो बचे हैं, वह त्रासदी को नकदी में बदलने को कमर कसे हुए हैं।