अल्ला जाने क्या होगा आगे
सबको पता है, भूकंप का पहला झटका कमजोर होता है। दूसरे तेज झटके की पूर्व चेतावनी जैसा। पहला झटका तो बिहार वाले झेल गए। अगले हफ्ते जब चुनावी नतीजों का ज्वालामुखी फटेगा, तभी पता चलेगा कि किसके यहां...
सबको पता है, भूकंप का पहला झटका कमजोर होता है। दूसरे तेज झटके की पूर्व चेतावनी जैसा। पहला झटका तो बिहार वाले झेल गए। अगले हफ्ते जब चुनावी नतीजों का ज्वालामुखी फटेगा, तभी पता चलेगा कि किसके यहां दिवाली मनेगी और कौन अंधेरे में आत्मचिंतन करेगा। पटाखा फुस्स होगा कि नहीं, यह जानने के लिए उसके मुंह में आग तो लगानी ही पड़ती है। इधर कुछ चुनावी पंडित मोदी को एटम बम व महागठबंधन को देसी पटाखों का गोदाम बता रहे हैं। वैसे हमारे एक्जिट पोल सीली हुई फुलझडि़यां होते रहे हैं। ज्यादा जरूरी है कि हमारी माचिस में तीलियां हों। चुनावी जलजले के बाद राहत नहीं बांटी जाती। सहायता शिविर नहीं लगते। जो हार जाता है, उसे मलबे से कोई नहीं निकालता। वैसे भी असली दिवाली तो जुआ जीतने वाले की ही होती है। अगले हफ्ते तो पूरे बिहार की मुट्ठी खुलेगी। अब वह खाक होगी या लाख, यह तो अल्ला भी नहीं जानता, तो मौला क्या जानेगा? सबके पांव उम्मीद से भारी हैं। लेकिन यह भी सच है कि सभी डिलीवरियां सामान्य नहीं होतीं, सिजेरियन भी होती हैं। अल्ला खैर करे।
बिहार के चुनाव में हारे सभी नेता अगले हफ्ते से बिहार के कल्याण की चिंता में इत्मीनान से डूब जाएंगे। जब सत्ता में थे, तब उन्हें इसका समय नहीं मिलता था। जो जीतेगा, देखना सबसे पहले सबकी खुपरिया पर टीपें मार-मार कर भंगड़ा नाचेगा। पर वीतरागी और तटस्थ राजभवन का क्या? ऐरा-गैरा जीते या नत्थू खैरा हारे, उसे तो शपथ-ग्रहण समारोह की दरियां बिछाने से मतलब। दूध निकले चाहे न निकले, थन तो निचोड़ने ही पड़ते हैं। मैंने अपनी कल्पना में धृतराष्ट्र से पूछा- राजन, आंख खोलकर बताइए, बिहार के महाभारत में क्या होगा? वह बोले- होगा क्या? जो लाशें होंगी, वे तैरने लगेंगी और जो डूब जाएंगे, समझो उन्हीं में जिंदगी थी। लेकिन इसका उल्टा भी हो सकता है। जब तक कोई बदलाव न हो, तब तक देखा गया है कि चुनाव कोई जीते-हारे, मरती उम्मीदें ही हैं। अब भइया जो मर गया, उसे जलाओ या दफन करो क्या फर्क पड़ता है?