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दीया टिमटिमा रहा है

लोग कहेंगे कि दिवाली के दिन कुछ अधिक मात्रा में चढ़ा ली है, नहीं तो जगर-मगर चारों ओर बिजली की ज्योति जगमगा रही है और इसको यही सूझता है कि दीया, वह भी दीये नहीं, दीया टिमटिमा रहा है, पर सूक्ष्म दृष्टि...

दीया टिमटिमा रहा है
लाइव हिन्दुस्तान टीमTue, 10 Nov 2015 09:58 PM
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लोग कहेंगे कि दिवाली के दिन कुछ अधिक मात्रा में चढ़ा ली है, नहीं तो जगर-मगर चारों ओर बिजली की ज्योति जगमगा रही है और इसको यही सूझता है कि दीया, वह भी दीये नहीं, दीया टिमटिमा रहा है, पर सूक्ष्म दृष्टि का जन्मजात रोग जिसे मिला हो, वह जितना देखेगा, उतना ही तो कहेगा।

 मैं गंवई-देहात का आदमी रात को दिन करने वाली नागरिक प्रतिभा का चमत्कार क्या समझूं? मैं जानता हूं, अमा के अंधकार से घिरे हुए देहात की बात, मैं जानता हूं अमा के सर्वग्रासी मुख में जाने से इनकार करने वाले दीये की बात, मैं जानता हूं बाती के बल पर स्नेह को चुनौती देने वाले दीये की बात, और जानता हूं इस टिमटिमाते हुए दीये में भारत की प्राण-ज्योति के आलोक की बात। दीया टिमटिमा रहा है!

सुनना चाहेंगे इस दीये का इतिहास? तो पहले रोमन इतिहासकार प्लिनी का रुदन सुनिए। भारत वर्ष में सिमिट कर भरती हुई स्वर्ण-राशि को देखकर बेचारा रो पड़ा था कि भारत में रोमक विलासियों के कारण सारा स्वर्ण खिंचा जा रहा है, कोई रोक-थाम नहीं। उस दिन भी भारत में श्रेष्ठि थे, और थे श्रेष्ठि-चत्वर, श्रेष्ठि-सार्थवाह और बड़े-बडे़ जलपोत, बड़ी-बड़ी नौकाएं और उनको आलोकित करते थे बड़े-बडे़ दीप स्तंभ।

स्कंदगुप्त का सिक्का 146 ग्रेन का था, कब? जबकि भारत वर्ष की समस्त शक्ति एक बर्बर बाढ़ को रोकने में और सोखने में लगी हुई थी। 146 ग्रेन का अर्थ कुछ होता है? आज के दीये को टिमटिमाने का बल अगर मिला है, तो उस जल-विहारिणी महालक्ष्मी के आलोक की स्मृति से ही, और भारत की महालक्ष्मी का स्रोत अक्षय है, इसमें भी संदेह नहीं। बख्तियार खिलजी का लोभ, गजनी की तृष्णा, नादिरशाह की बुभुक्षा और अंग्रेज पंसारियों की महामाया के उदर भरकर भी उसका स्रोत सूखा नहीं, यद्यपि उसमें अब बाहर से कुछ आता नहीं, खर्च-खर्च भर रह गया है। हां, सूखा नहीं, पर अंतर्लीन अवश्य हो गया है और उसे ऊपर लाने के लिए कागदी आवाहन से काम न चलेगा।

 कागदी आवाहन से कागदों के पुलिंदे आते हैं, सोने की महालक्ष्मी नहीं। आज जो दीया अपना समस्त स्नेह संचित करके यथा-तथा भारतीय कृषक के तन के वस्त्र को बाती बनाकर टिमटिमा रहा है, वह इसी आशा से कि अब भी महालक्ष्मी रीझ जाएं, मान जाएं। उसका आवाहन कागदी नहीं, कागद से उसकी देखा-देखी भी नहीं, जान-पहचान नहीं, भाईचारा भी नहीं; उसका आवाहन अपने समस्त हृदय से है, प्राण से है और अंतरात्मा से है। इस मिट्टी के दीये की टिमटिमाहट में वह शीतल ज्वाला है, जो धरती के अंधकार को पीकर रहेगी और बिजली के लट्टुओं पर कीट-पतंग जान दें या न दें, यह शीतल ज्वला समस्त कीट-पतंगों की आहुति लेकर रहेगी। चलिए, केवल शहर के अंदेशे से दुबले न बनिए, तनिक देहात की भी सुधि लीजिए।

आज देहात में क्या है और क्या नहीं है, यह बता दूं? देहात में है वयस्क मताधिकार के अनुसार चुनी गई गांव-सभाएं और न्याय-पंचायतें, जिनमें बकरी और मुर्गी तक पर कर लगाया जा चुका है और 'सरवा ससुरा' कहने पर भी अंतिम अर्थ-दंड, कर वसूली इनकी कुल दस प्रतिशत हुई है, अधिक नहीं। देहात में हैं बिखरे हुए सफेदपोश, जिसके कारण हाट में साग-भाजी भी वही ला पाते हैं, जिनका पेटा बड़ा है। टुटपुंजिए लोग साग-भाजी भी बेचकर अपनी गुजर नहीं कर सकते। देहात में है झिनकू साह की फूलती-फलती हुई बिरादरी, जिनकी बांस की पेटी तक मोटे-मोटे भुजाएठों से, हंसुलियों से और कंठहारों से लेकर हलकी नकबेसर, लौंग, कनफूल, बेंदी और झूमर से ठसाठस भर गई हैं और मैली पैबंद लगी हुई चौबंदी को विदाई मिल गई है, उसके स्थान पर बंगला कुर्ते ने अपना आलोक दिखाया है। देहात में आपको नहीं मिलेगी हंसती-खेलती जवानी, क्योंकि धरती की लक्ष्मी रूठ गई है, और अब पेट आधा-तीहा भरने के लिए उसे कचरापाड़ा तथा जमशेदपुर की भट्ठियों में तपना पड़ता है। देहात में आज आपको नहीं मिलेगी अलाव की अलमस्त चर्चा, वहां आगम का अंधेरा है, गहरी निराशा है और अत्यंत क्षीण साहस। पर दीया टिमटिमा रहा है!


बंकिम बाबू ने यमुना की सीढि़यों पर इसी अमा की अंधेरी रात में भारत की राजलक्ष्मी को नूपुर उतारकर चुपचाप उतरते देखा था। सुना कि राजलक्ष्मी भारत की इंद्रपुरी में लौट आई हैं, किंतु माइक की प्रसारित ध्वनि संभवत: उन वधिर कानों तक नहीं पहुंची है, जो युद्धोत्तर भारत में किसी नए परिवर्तन का आभास भी नहीं पा सके हैं। उनके लिए संभवत: राजलक्ष्मी अभी नहीं आई हैं। कुम्हार का चक्का अब नहीं घूमता और माटी की घंटी अब नहीं बजती, पटवारी को चुटकी भर चीनी के लिए चांदी चढ़ाने कोई नहीं जाता, क्यों? इसीलिए कि राजलक्ष्मी के आने का डिंडिम-नाद अभी इन अभागों के कानों में नहीं पहुंच सका है। पता नहीं, उस डिंडिम-नाद का दोष है या इन कानों का, इसकी मीमांसा करने की आवश्यकता भी नहीं। पर सच बात यह है कि राजलक्ष्मी के पधारने के शुभ-संदेश उनके पास पहुंचाया भी जाए, तो वह इनके हृदय में उतर नहीं सकता।

ये उस राजलक्ष्मी के आने की प्रतीक्षा में हैं, जो अमावस्या  के गहन अंधकार में ही आ सकती हैं, जो घर पर ही आ सकती हैं और जो गोबर का गोवर्धन बनकर छोटी-से-छोटी अन्न की डेहरी में ही जा सकती हैं।

राजलक्ष्मी को अगर सौ बार गरज है कि अपने आने का संदेश उन्हें इन वधिरों तक, इन अंधों तक भी पहुंचाना है और वह अगर यह समझती हैं कि बिना इन तक संदेश पहुंचे, उनके आने का कोई महत्व नहीं है, तो मैं कहता हूं कि उन्हें उसी रूप में आना होगा, जो इनकी कल्पना में सरलता से उतर सके। ये डॉलर-क्षेत्र नहीं जानते, ये पौंड-पावना से सरोकार नहीं रखते, इन्हें मुद्रास्फीति का अर्थ नहीं मालूम, पर इतना समझते हैं कि कागदों का अंबार राजलक्ष्मी का शयन-कक्ष नहीं बना सकता। इनकी लक्ष्मी गेहूं-जौ के नवांकुरों पर ओस के रूप में उतरती हैं, इनकी लक्ष्मी धान की बालियों के सुनहले झुमकों में झूमती हैं और इनकी लक्ष्मी गऊ  के गोबर में लोट-पोट करती हैं। उस  लक्ष्मी के लिए वन-महोत्सव से अधिक कृषि-महोत्सव की आवश्कता है।

जब तक इन देहातियों की लक्ष्मी नहीं आतीं, तब तक हमको भी इस लक्ष्मी से कुछ लेना-देना नहीं है। हमारे ऊपर वैसे ही अकृपा बनी रहती है। हम ठहरे लक्ष्मीपति की छाती पर श्रीवत्स चिह्न देने वाले महर्षि भृगु की संतान, समुद्रपाई अगत्स्य के वंशज और लक्ष्मी की धरती के निवास बेल की डाली छिनगाने वाले परम शैव... हमें उनसे दुलार की, पुचकार की आशा नहीं, आकांक्षा नहीं। पर विमाता होते हुए भी माता तो हैं ही वह, कौशल्या से कैकेयी का पद बड़ा हुआ, तो थोड़ी देर के लिए इनका पद भी सरस्वती से बड़ा मान ही लेता हूं, सो भी आज के दिन तो इनका महत्व है ही, यह भले ही उस महत्व को न समझें। इसलिए मैं अपना कर्तव्य समझता हूं कि मैं अपनी इस विमाता को चेताऊं कि जिनके चरणों की वह दासी हैं, उनकी सबसे बड़ी मर्यादा है, निष्किंचनता। सुनिए उन्हीं के मुख से और लक्ष्मी को ही संबोधित करके कही गई इस मर्यादा को- निष्किंचना वयं शर्श्वन्निष्किंचनजनप्रिया: (हम सदा से ही अकिंचन हैं और अकिंचन जन ही हमें प्रिय हैं)।

निष्किंचन को चाहे आप 'हैव-नॉट' कहिए, चाहे खेतिहर किसान, परंतु कृषि और कृष्ण की प्रकृति एक है। भारत के भगवान कृषिमय हैं, इसमें कोई संदेह नहीं। इसलिए उनकी राजलक्ष्मी को उनका अनुगमन करना आवश्यक ही नहीं, परमावश्यक है।

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