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शून्य से शिखर तक के सैंतीस साल

छह अप्रैल, 1980 को अपनी राजनीतिक यात्रा की शुरुआत करने वाली भारतीय जनता पार्टी के 37 वर्ष पूरे हो गए। हम इस सफर को तीन भागों में बांट सकते हैं। जिस विचारधारा को लेकर भाजपा आज आगे बढ़ रही है, उसका...

शून्य से शिखर तक के सैंतीस साल
लाइव हिन्दुस्तान टीमThu, 06 Apr 2017 10:09 PM
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छह अप्रैल, 1980 को अपनी राजनीतिक यात्रा की शुरुआत करने वाली भारतीय जनता पार्टी के 37 वर्ष पूरे हो गए। हम इस सफर को तीन भागों में बांट सकते हैं। जिस विचारधारा को लेकर भाजपा आज आगे बढ़ रही है, उसका बीजारोपण तो युवा डॉक्टर केशवराव बलिराम हेडगेवार ने सन 1925 में किया था। उसी विचार-पौधशाला से 21 अक्तूबर, 1951 को नई दिल्ली में भारतीय जनसंघ के रूप में एक कोंपल फूटी और अप्रैल 1980 में उसने भारतीय जनता पार्टी के रूप में एक नया अवतार धारण किया। नाम परिवर्तित होते गए, लेकिन लक्ष्य वही रहा- भारत को गरीबी, अन्याय, असमानता से मुक्त कराकर एक गौरवशाली और सशक्त राष्ट्र के रूप में वैश्विक पटल पर पुनस्र्थापित करना। 

संयोग देखिए, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना लगभग एक ही समय पर हुई, जहां संघ का जन्म 1925 में विजयदशमी के दिन अर्थात 27 सितंबर, 1925 को हुआ, वहीं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना उसी वर्ष के क्रिसमस यानी 25 दिसंबर को हुई। इन दोनों के संस्थापक कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता थे। जहां डॉक्टर केशवराव बलिरामराव हेडगेवार विदर्भ कांग्रेस के पदाधिकारी थे, वहीं ईएमएस नंबूदिरीपाद केरल में इसी दल के नेता थे। ये दोनों विचारधाराएं अपने-अपने गंतव्य की ओर चल पड़ीं। जहां वामपंथी विचारधारा विश्व के अन्य भागों के साथ-साथ आज भारत में भी अप्रासंगिक हो चुकी है, वहीं संघ का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भारत के विमर्श के केंद्र में है। 

आज भारतीय जनता पार्टी की पूर्ण बहुमत की केंद्र में सरकार है और देश के 17 राज्यों में अपने बल पर या फिर गठबंधन शक्ति के माध्यम से वह सत्तासीन है। भाजपा के नेता और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कद का नेता आज विपक्षी दलों में कहीं नहीं है। स्मरण रहे कि इंदिरा गांधी की अक्तूबर 1984 में अपने ही सुरक्षाकर्मियों द्वारा नृशंस हत्या के बाद राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को आठवें लोकसभा चुनाव में 400 से अधिक स्थानों पर विजय प्राप्त हुई थी, जबकि भाजपा को केवल दो सीटों पर संतोष करना पड़ा। उस चुनाव में पार्टी के कई दिग्गज नेता भी चुनाव हार गए। तो 30 वर्ष बाद 2 से 282 का चमत्कार कैसे संभव हुआ? 

कांग्रेस को उसके सत्ता के अहंकार ने निरंकुश बना दिया और भ्रष्टाचार की दीमक ने खोखला। पिछले कुछ दशकों से कांग्रेस धन से सत्ता और सत्ता से धन अर्जित करने वाली मशीनरी मात्र बनकर रह गई है। गांधीजी का व्यक्तित्व और उनका चिंतन कांग्रेस की असली पूंजी थी। लेकिन 1969 में कांग्रेस आपसी कलह के कारण दो धड़ों में बंट गई और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का संसद में बहुमत समाप्त हो गया। वह पूरी तरह वामपंथियों पर निर्भर हो गईं। गांधीजी के विचारों का परित्याग तो कांग्रेस पंडित जवाहरलाल नेहरू के प्रथम कार्यकाल में ही कर चुकी थी और अपने विचार प्रबंधन का काम उसने 1970-1971 में वामपंथी विचार अधिष्ठानों को ठेके पर दे दिया। 

जन-भावनाओं और भारत की सनातन संस्कृति के प्रतीक श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या में मंदिर निर्माण में राजनीति और शाह बानो के मामले में तुष्टीकरण की नीति ने भी कांग्रेस को भारतीय जनमानस से अलग कर दिया। यह वामपंथियों की विकृत विचारधारा का ही प्रभाव था कि कांग्रेस ने साल 2001 में गुजरात में गोधरा कांड, जिसमें 60 के लगभग जिंदा जलाए गए कारसेवकों के प्रति सहानुभूति न रखते हुए इस हिंसा के शिकार निरपराध हिंदुओं को ही लांछित किया और उन्हें निशाना बनाया। सोहराबुद्दीन शेख और इशरत जहां जैसे आतंकियों का साथ दिया और तत्कालीन लोकप्रिय मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को न केवल कठघरे में खड़ा किया, बल्कि हत्या के झूठे मामले में भी फंसाने का प्रयास किया। कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह ने परोक्ष रूप से 2008 के मुंबई हमले के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को दोषी ठहराया और बाटला हाउस की पुलिसिया मुठभेड़ तक को फर्जी ठहरा दिया। यह सब उसी खतरनाक चिंतन शृंखला की कड़ियां हैं, जिसका जनता ने समुचित उत्तर चुनावों के माध्यम से दिया है। 

एक तरफ, इस तरह के झूठे आरोप, जो भाजपा के साथ-साथ भारत को भी कठघरे में खड़ा करते थे और पाकिस्तान के भारत पर आक्षेप को बल देते थे, वहीं दूसरी ओर भाजपा शासित प्रदेशों में विकास और राष्ट्रवाद की पटकथा लिखी जा रही थी। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में गुजरात ने इन सारे षड्यंत्रों के बीच, विकास के क्षेत्र में कई आशातीत सफलताएं प्राप्त कीं। 2014 के आते-आते लोगों के सब्र का बांध टूट गया और उनको निर्णय लेने में कोई दुविधा नहीं हुई। 30 वर्षों के अंतराल के बाद केंद्र में एक राजनीतिक दल ने पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाई। 

आज केंद्र की मोदी सरकार को तीन वर्ष हो चुके हैं। काले धन के खिलाफ नोटबंदी के माध्यम से लड़ाई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक निर्णायक मोड़ पर पहुंचा दिया है। उज्ज्वला और जन-धन जैसी कई जन-हितकारी योजनाओं ने करोड़ों लोगों का जीवन स्तर सुधारा है। सरकार और दल के शीर्ष स्तर (मंत्री और उच्चाधिकारी) पर भ्रष्टाचार का कोई भी आरोप नहीं है। उत्तर प्रदेश के हाल के विधानसभा चुनाव के परिणाम ने भाजपा के कार्य-कलापों और नीतियों पर एक बार फिर मुहर लगाई है। 

भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने साल 1951 में अपने पहले अध्यक्षीय भाषण में कहा था, ‘यह भयावह है कि जाति और संप्रदायों के आधार पर राजनीतिक अल्पसंख्यक वर्गों की कल्पना को प्रोत्साहन दिया जाए, तो भी स्पष्टतया भारत के विशाल बहुसंख्यक समाज का यह कर्तव्य है कि वह उन सभी वर्गों को, जो कि राष्ट्र के प्रति सच्ची भक्ति रखते हैं, आश्वासन दे कि उनको कानून के अनुसार पूर्ण संरक्षण मिलेगा तथा सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक, सभी क्षेत्रों में उनके साथ समानता का व्यवहार होगा। हमारा दल स्पष्टरूपेण यह आश्वासन देता है। हम यह भी मानते हैं कि ऐसे बहुत लोग हैं, जो आज पिछड़े हुए और दलित हैं। उनको पूर्ण अवसर मिलना चाहिए कि वे अपनी सामाजिक और आर्थिक स्थिति उन्नत कर सकें और नवभारत के निर्माण में अपने अधिक सौभाग्यशाली बंधुओं के साथ समान रूप से सहयोग दे सकें।’

क्या 66 वर्ष पूर्व डॉक्टर मुखर्जी के उपरोक्त शब्द, आज भाजपा की नीतियों और कार्य-कलापों में परिलक्षित नहीं होते?

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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