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MOVIE REVIEW: पढ़े 'सरबजीत' की दिल को छू जाने वाली कहानी

कलाकार: ऐश्वर्या राय, रणदीप हुड्डा, रिचा चड्ढा, दर्शन कुमार, अंकुर भाटिया, अंकिता श्रीवास्तव, शिवानी सैनी, राम मूर्ति शर्मा   निर्देशक: उमंग कुमार निर्माता: वाशु भगनानी, भूषण कुमार, संदीप...

MOVIE REVIEW: पढ़े 'सरबजीत' की दिल को छू जाने वाली कहानी
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 20 May 2016 03:42 PM
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कलाकार: ऐश्वर्या राय, रणदीप हुड्डा, रिचा चड्ढा, दर्शन कुमार, अंकुर भाटिया, अंकिता श्रीवास्तव, शिवानी सैनी, राम मूर्ति शर्मा  
निर्देशक: उमंग कुमार
निर्माता: वाशु भगनानी, भूषण कुमार, संदीप सिंह
लेखक : उत्तकर्षनि वशिष्ठ, राजेश बेरी
संगीत : अमाल मलिक, जीत गांगुली, साहिल-प्रितेश
रेटिंग : 2.5 स्टार

तीन साल पहले तक भारत-पाक सीमा से सटे पंजाब के गांव भिखिविंड के रहने वाले सरबजीत सिंह के बारे में आमजन केवल इतना ही जानता था कि वह पाकिस्तान की जेल में बंद है और उसकी बड़ी बहन दलबीर कौर उसे छुड़ाने के लिए जी जान से लड़ रही है। सरबजीत जेल से रिहा होने ही वाला था कि एक दिन खबर आयी कि जेल में कुछ कैदियों ने उसे मार डाला है। पाकिस्तान से उसकी लाश यहां आयी और कहानी खत्म।

साल 2014 में प्रियंका चोपड़ा को लेकर 'मैरी कॉम' जैसी राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्म बना चुके निर्देशक उमंग कुमार की फिल्म 'सरबजीत' इस पूरे हादसे को सिलसिले वार ढंग से बयां करती है। एक चौंकाने वाली इस कहानी में कई भावपूर्ण किस्से हैं और ऐसी बातें भी जो दो देशों के बीच सियासी लड़ाई पर सोचने पर मजबूर करती हैं। लेकिन इन तमाम बातों का दारोमदार सरबजीत और दलबीर का पात्र निभाने वाले उन कलाकारों के कंधे पर है, जो फिल्म में बांधे रखने की क्षमता पैदा कर सके। तो क्या वाकई सरबजीत और दलबीर कौर इस सवा दो घंटे की फिल्म में वो असर जगा पाए हैं। क्या ये फिल्म सही मायने में एक बायोपिक बन पायी है। आइये बताते हैं।

फिल्म की कहानी शुरू होती है 1990 में सरबजीत (रणदीप हुड्डा) के गलती से पाकिस्तानी सीमा में प्रवेश करने से। नशे ही हालत में मिले सरबजीत को पाक सिपाही जेल में डाल देते हैं और आठ महीनों तक उसके घरवालों को उसकी कोई खबर नहीं होती। एक दिन पाकिस्तान से सरबजीत की बड़ी बहन दलबीर कौर (ऐश्वर्या राय) के नाम एक बैरंग चिट्ठी आती है। इस चिट्ठी से दलबीर कौर और सरबजीत की पत्नी सुखप्रीत (रिचा चड्ढा) के मन में उसे वापस लाने की एक आस जगती है।

दलबीर, इलाके के विधायक से लेकर राज्य के मुख्यमंत्री तक हर किसी की चौखट तक गुहार लगाती है। लेकिन कुछ नहीं होता। करीब आठ महीने के बाद जब वह दिल्ली में प्रधानमंत्री से सरबजीत की रिहाई के लिए मिलती है तो उसे ‘देखते हैं’ जैसे दो शब्दों का आश्वासन मिलता है। वह टूट जाती है, लेकिन हिम्मत नहीं हारती। उधर, पाक जेल में रौंगटे खड़े कर देन वाली यातनाएं ङोल रहे सरबजीत को रंजीत सिंह बना दिया जाता है और उसके माथे पर पाकिस्तान में हुए बम धमाकों का आरोप मढ़ दिया जाता है।

देखते-देखते दस-पन्द्रह साल गुजर जाते हैं। सरबजीत की दो बेटियां पूनम (अंकिता श्रीवास्तव) और स्वपन (शिवानी सैनी) बड़ी हो जाती हैं। और फिर एक दिन उम्मीद की किरण भी दिखती है। सरबजीत के पूरे परिवार को उससे पाकिस्तान में मिलने का मौका मिलता है। लेकिन रिहाई फिर भी नहीं हो जाती। एक दिन एक पाकिस्तानी वकील अवैस शेख (दर्शन कुमार) दलबीर कौर की तरफ मदद का हाथ बढ़ाता है और सरबजीत का केस लड़ता है। उसे शुरुआत में कामयाबी भी मिलती है और रिहाई का रास्ता भी। सब ठीक चल ही रहा होता है कि सरबजीत की रिहाई वाले दिन उसकी लाश भारत आती है।

सरबजीत की ही तरह पाकिस्तान की विभिन्न जेलों में बंद सैंकड़ों भारतियों की स्थिति कमोबेश एक जैसी ही है। गलत पहचान या कहिये धोखे से पकड़े गए सैंकड़ों भारतियों को वहां मौत से बदतर जिंदगी जेलों में गुजारनी पड़ रही है। इसलिए सरबजीत की कहानी उत्सुकता तो पैदा करती है। लेकिन ये कहानी सिनेमाई ड्रामे से भी लबरेज है।

फिल्म में गीत-संगीत है जो सरबजीत की जिंदगी के हसीन पलों को संजोता है, लेकिन गंभीर क्षणों में यह प्रभावी नहीं दिखता। ये कहानी कई जगह नाटकीय रूपांतरण से ग्रस्त नजर आती है। खासतौर से सरबजीत के पाकिस्तान जाने से पहले का कथानक काफी फिल्मी लगता है। फिल्म के एक सीन में सरबजीत की बेटी इस इंतजार से तंग आकर उकताकर अपने पिता की तमाम चीजें जला देती है। हताशा में ऐसा संभव है, लेकिन गिरते को फिर से संभालने वाले पलों पर काफी कम रोशनी डाली गयी है। किसी के घर वापस आने का चौबीस सालों का इंतजार काफी सहजता से कटता दिखाया गया है। बेटियां बड़ी हो गयीं और बहन बूढ़ी, लेकिन पत्नी वैसी की वैसी ही है। ऐसा लगता है कि इंतजार बस उस पर ही भारी नहीं पड़ा।

कथानक की चूक से दलबीर कौर का इधर से उधर धक्के खाने का संघर्ष  असर नहीं जगाता, जबकि दूसरे छोर पर जेल में बंद सरबजीत की कहानी बार-बार चौंकाने वाली लगती है और असर भी दिखाती है। जेल में सरबजीत से उसके पूरे परिवार के मिलने वाला सीन काफी भावनात्मक है। ऐसे कुछेक दृश्य और भी है, जो फिल्म को जोड़े रखते हैं। खासतौर से सरबजीत के दृश्य। लेकिन फिल्म के सबसे चुनौतीपूर्ण किरदार दलबीर कौर में कथानक की आग लगभग नदारद-सी रहती है।

अभिनय के मंच पर बांधे रखने का प्रभावशाली कार्य रणदीप हुड्डा ने बखूबी किया है। जेल में यातनाएं झेल रहे कैदी का मेक-अप और उसके हावभाव को उन्होंने बखूबी अपने अभिनय में उतारा है। उनकी आंखों से बेबसी और शरीर से टूट जाने की आवाज महसूस होती है। लगता है कि हां वाकई कोई जेल से बाहर आने के लिए तड़प रहा है। लेकिन दूसरे छोर ऐश्वर्या राय ने बस अपने किरदार को बचाने की कोशिश भर ही की है। पंजाबियत उन पर नहीं फबती। न ही वह बूढ़ी लगती है। साठ साल की उम्र वाला किरदार उनके ऐश्वर्या के सामने बौना सा लगता है। उनकी संवाद अदायगी जबरदस्ती का सौदा लगती है। ऐसे लगता है कि आक्रोश उनसे उगलवाया जा रहा है। एक महत्वपूर्ण किरदार की ऐसी हालत देख निराशा होती है। इसके अलावा रिचा चड्ढा ने भी काफी अच्छा अभिनय अच्छा किया है। हालांकि उनके किरदार को पनपने का मौका कम ही दिया गया है।

कुल मिलाकर 'सरबजीत' अपने विषय की वजह से उत्सुकता तो पैदा करती ही है। कई जगह बांधे भी रखती है और अभिनय से चौंकाती भी है। लेकिन बेहद अच्छे, अच्छे और कम अच्छे मनोरंजन का अंतर भी समझा देती है।

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