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MOVIE REVIEW: 'तमाशा' देखने से पहले पढ़े इसका रिव्यू

फिल्म सितारों और निर्माता-निर्देशकों के विभिन्न साक्षात्कार के दौरान कई बार ये बात निकल कर सामने आती है कि हमारी फिल्में लगभग 5-6 आईडियाज के ही ईर्द-गिर्द घूमती हैं। खासतौर से प्रेम कहानियों के संबंध...

MOVIE REVIEW: 'तमाशा' देखने से पहले पढ़े इसका रिव्यू
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 28 Nov 2015 10:09 AM
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फिल्म सितारों और निर्माता-निर्देशकों के विभिन्न साक्षात्कार के दौरान कई बार ये बात निकल कर सामने आती है कि हमारी फिल्में लगभग 5-6 आईडियाज के ही ईर्द-गिर्द घूमती हैं। खासतौर से प्रेम कहानियों के संबंध में। दो-चार बातें इधर-उधर कर दें तो किसी भी फिल्म का मुख्य आधार लगभग एक जैसा होता है। हां, पटकथा में जरूर कई बदलाव किये जाते हैं, लेकिन कहानी का विचार वही होता है, आत्मा वही होती है। 

निर्देशक इम्तियाज अली की यह फिल्म अपनी शुरूआत में तो इस बात के बिल्कुल उलट दिखती है। फिल्म के मुख्य किरदार वेद (रणबीर कपूर) और तारा (दीपिका पादुकोण) एक-दूजे से वादा करते हैं कि वे वैसा कुछ नहीं करेंगे, जैसा कि हमेशा से होता आया है। बावजूद इसके यह फिल्म वही सब दिखाती है, जिसके हम आदि रहे हैं, पहले कई बार देखते रहे हैं। अली की फिल्मों के संबंध में ये बात और पुख्ता रूप से सामने आती है, क्योंकि 'तमाशा' का विचार और उसके किरदार उनकी पिछली फिल्मों से काफी हद तक मिलते-जुलते हैं। इन किरदारों का आत्मा करीब-करीब वही है। केवल कहने के अंदाज नया है। तो क्या ये नयापन, नया अंदाज  वाकई उस ढंग से 'नया' बन कर रिझा पाया है? अली की इस दोहराव 'गाथा' पर और बातें करेंगे, लेकिन पहले जरा फिल्म की कहानी पर नजर डाली जाए।

वेद और तारा की मुलाकात फ्रांस के एक दिलकश पर्यटन स्थल कॉरसिका में होती है। दोनों यहां छुट्टियां बिताने आये हैं। पहली ही मुलाकात में वेद, तारा से कहता है कि वह दोनों एक-दूसरे से बिल्कुल अन्जान रहेंगे और अपने-अपने बारे में एक-दूजे को कुछ नहीं बताएंगे। एक सप्ताह साथ रहने के बावजूद दोनों को न तो एक-दूजे का नाम पता होता है और न ही कोई अन्य जानकारी। सात दिन पूरे होते ही तारा, वेद से बिना कुछ कहे चली जाती है।

वह कोलकाता आ जाती है और वेद दिल्ली। दिन महीनों में बदल जाते हैं और महीने साल। देखते-देखते चार साल गुजर जाते हैं। तारा वेद को भुला नहीं पाती और उसे ढूंढने-ढूंढते बिना किसी नाम पते के दिल्ली आ जाती है। वेद उसे मिल जाता है। वो उससे पहले से भी अच्छे तरीके से मिलता है। दोनों कई बार मिलते हैं। बाहर खाना खाते हैं, वगैराह वगैराह। कई मुलाकातों के बाद तारा को अहसास होता है कि वेद वो इंसान नहीं है, जिससे वो कॉरसिका में मिली थी। उसकी जिंदादिली, बिंदासपन-खिलंदड़ापन, उसे गायब-सा दिखता है।

ऐसे में वेद का उसे शादी के प्रोपोज करना, उसे हिला देता है। वह समझ नहीं पाती और उसे मना कर देती है और वेद... मानो उसे तो कोई फर्क ही नहीं पड़ता। वेद की वही रूटीन लाइफ शुरू हो जाती है।

रोज ऑफिस जाना, बॉस की बेअक्ली की बातों पर यस सर, यस सर कहना, शाम को दोस्तों के साथ उठ-बैठ और वापस घर। कल से फिर वही सब। लेकिन तारा...वो वेद को भुला नहीं पाती। उसे समझ नहीं आता कि वेद ऐसा क्यों है। क्या वो ऐसा ही है और अगर वो ऐसा ही है तो वो कौन था, जिससे वो मिली। उसे नहीं पता कि वेद के इस बर्ताव की वजह क्या है। 

वेद और तारा की ये कहानी उत्सुकता जगाती है। खासतौर से वेद का किरदार। एक आदमी और उसकी शख्सियत के दो पहलू के रूप। ये दो पहलू अपने-अपने स्तर पर कई जगह अच्छे भी लगते हैं। इम्तियाज ने वेद के किरदार के एक पहलू को बिंदास बनाया है तो दूसरे को जी हुजुरी करने वाला, एक ऐसा इंसान जो अपनी जिंदगी दिल खोल कर नहीं जी नहीं सकता। जिंदगी की दौड़ में वो बस एक रोबोट बन कर रह गया है। लेकिन इन सब बातों को कहने का अंदाज काफी ऊबाऊ है। वेद, अली की पुरानी फिल्मों मुख्य किरदारों का रिश्तेदार-सा लगता है। उसमें कभी 'जब वी मेट' के आदित्या (शाहिद कपूर) की झलक मिलकी है तो कभी वो बिल्कुल जय (सैफ अली खान) की तरह लगता है, जो करियर की बुंलदी पर पहुंच कर भी खाली हाथ होता है। वेद कहीं-कहीं जॉर्डन (रणबीर कपूर) से मिलता-जुलता है, जिसके परिवार वाले चाहते हैं वो अपना पुश्तैनी व्यवसाय संभाले। लेकिन जॉर्डन को गायक बनना चाहता है।  

करीब ढाई घंटे की ये फिल्म अपने गीत-संगीत से भी नहीं रिझा पाती। ऊपर से किरदार भी केवल दो। एक दर्शक होने के नाते आपको आराम नहीं मिलता और आप बस इन दो किरादारों को ही देखते रहते हैं। ऐसा लगता है कि अली की फिल्म की टाइटल उन पर हावी हो गया है और उन्होंने इस फिल्म को तमाशा स्टाइल में ही बना दिया है। रंगमंच की प्रस्तुति की तरह, जहां भाव, कहानी कहने का अंदाज, कथानक वगैराह फिल्मों से बेहद अलग होते हैं और उनका विचार भी अलग होता है। हर दूसरे-तीसरे दृश्य में यह फिल्म एक नाटक की तरह लगती है, जिसे आप बड़े परदे पर देख रहे हैं। हालांकि फिल्म का विचार अपने-आप में अच्छा है और इससे युवाओं का एक बड़े वर्ग इत्तेफाक भी रखेगा। एक फिल्म में ऐसी सोच का समावेश एक विचार के रूप में बुरा नहीं है, लेकिन वो दर्शक जो फिल्म मनोरंजन के लिए देखने जाता है, इसकी प्रस्तुति देख कर  शायद खुद को छला हुआ-सा महसूस करेगा।

प्रस्तुति की खामियों को एक तरफ रख दें तो 'तमाशा' को एक दम से सिरे से खारिज भी नहीं किया जा सकता। उसकी वजह है दीपिका और रणबीर का अभिनय। 'पीकू' के बाद दीपिका ने फिर से आश्चर्यचकित किया है। वो अपनी साथी अभिनेत्रियों से कहीं आगे दिखती हैं। न जानें क्यों उनके अभिनय में दोहराव का अहसास नहीं होता। तो उधर रणबीर ने एक अभिनेता के रूप में दो कदम आगे जाने का काम किया है। ऐसा लगता है कि वेद का किरदार उनके लिए मुश्किल रहा होगा। अपनी खूबसूरती और आलस भरे जीवन से कॉरसिका, मन मोह लेता है। शायद बहुतेरे युवाओं को वेद और तारा में अपना अक्स दिखे।

ये फिल्म कुछ हिस्सों में काफी अच्छी लगती है। खासतौर से दीपिका और रणबीर के बीच के दृश्य। जब एक मन किसी को छोड़ जाने को कहता है तो दूसरा उसे जाने तो नहीं देना चाहता, लेकिन रोकता भी नहीं... इस प्यारी-सी प्रेम कहानी को अली इतना बड़ा तमाशा बनाने से रोक सकते थे।

सितारे : रणबीर कपूर, दीपिका पादुकोण, जावेद शेख, सुषमा सेठ, इश्तियाक खान
निर्देशक : इम्तियाज अली
निर्माता : साजिद नाडियाडवाला
संगीत : ए. आर. रहमान
गीत : इरशाद कामिल
रेटिंग : 2.5 स्टार

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