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फिल्म रिव्यू: हंटर वासु की कहानी

भारतीय समाज ने सेक्स को पाप की श्रेणी में डाल कर उसे अंधेरे कोनों के लिए छोड़ दिया। इसके बारे में बात करना चरित्रहीनता की निशानी माना जाने लगा। भारतीय फिल्में भी इस ‘क्लीशे’ से अछूती नहीं...

फिल्म रिव्यू: हंटर वासु की कहानी
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 20 Mar 2015 08:20 PM
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भारतीय समाज ने सेक्स को पाप की श्रेणी में डाल कर उसे अंधेरे कोनों के लिए छोड़ दिया। इसके बारे में बात करना चरित्रहीनता की निशानी माना जाने लगा। भारतीय फिल्में भी इस ‘क्लीशे’ से अछूती नहीं रह सकीं। मुख्यधारा की फिल्मों में ऐसे विषयों पर इशारों में बात की जाती थी। हां, बीच-बीच में कुछ फिल्में इस स्थिति को तोड़ने की कोशिश करती थीं, लेकिन वे ‘नक्कारखाने में तूती की आवाज’ जैसी साबित होती थीं। मगर अब समाज बदलाव के दौर में है और इस बदलाव को भारतीय सिनेमा में जगह मिल रही है,  बल्कि वह बदलाव में भागीदारी भी निभा रहा है। पिछले कुछ सालों में ऐसी फिल्में आई हैं, जिनमें इस विषय पर बात करने की कोशिश की गई है। हालांकि उनमें से भी ज्यादातर में कोई बहुत सार्थक बातें पेश की गई हों, ऐसा नहीं है, फिर भी वे मुख्यधारा की फिल्में मानी गईं।

हर्षवर्धन कुलकर्णी निर्देशित ‘हंटर’ भी इस संवेदनशील विषय को थोड़े अलग तरीके से उठाने की कोशिश करती है, लेकिन उस बात को सही तरीके से कह नहीं पाती। मंदार पुंछे (गुलशन देवैया) बचपन से ही सेक्स को लेकर काफी आकर्षित है। वह नाबालिग अवस्था में भी छिप कर एडल्ट फिल्में  देखने जाता है। अपने दोस्तों को टिप्स देता है कि लड़कियों को कैसे पटाया जाता है। बड़ा होकर वह वासु (जो हमेशा वासना में लिप्त रहता है। यह शब्द महाराष्ट्र में प्रचलित है, लेकिन उत्तर भारत के लिए नया है।) बन जाता है। इससे जुड़ा उसके जीवन का फलसफा बिल्कुल स्पष्ट है। वह कुंआरी लड़कियों से प्यार करता है तो विवाहित महिलाओं से भी अफेयर चलाने में उसे गुरेज नहीं। इस मामले में वह पूरी तरह खुले दिमाग का है, लेकिन इस प्रयास में कई बार उसकी पिटाई की नौबत भी आ जाती है और उसे वहां से भागना पड़ता है, फिर भी उसकी आदत नहीं छूटती।

उसके ज्यादातर दोस्त शादी कर लेते हैं, लेकिन वह शादी से भागता रहता है। एक दिन उसे भी लगता है कि वह कब तक भागता रहेगा, लिहाजा मां-बाप की जिद पर शादी के लिए हां कर देता है। वह कुछ लड़कियों से मिलता भी है, लेकिन वे उसे रिजेक्ट कर देती हैं। एक दिन वह तृप्ति (राधिका आप्टे) से मिलता है। वह एक बोल्ड लड़की है। उसके भी पहले कुछ लड़कों से संबंध रहे हैं। दोनों मिलते हैं, लेकिन शादी के बारे में राधिका अपने अतीत की वजह से निर्णय नहीं ले पाती। मंदार को तृप्ति से सही मायने में प्यार हो जाता है। बतौर निर्देशक यह हर्षवर्धन कुलकर्णी की पहली फिल्म है। इससे पहले वह फिल्म ‘हंसी तो फंसी’  लिख चुके हैं और टीवी सीरियल ‘आहट’ में बतौर लेखक और सहायक निर्देशक काम कर चुके हैं।

फिल्म के कुछ हिस्सों में वह जरूर प्रभावित करते हैं, लेकिन विषय के साथ पूरी तरह न्याय नहीं कर पाए हैं। वह फिल्म के लेखक भी हैं। अगर उन्होंने पटकथा पर सही तरीके से काम किया होता तो यह एक अच्छी फिल्म बन सकती थी, पर पूरी फिल्म देखने के बाद ऐसा लगता है कि इसे भी लोकप्रिय मांग के हिसाब से बनाया गया है। सेंसर बोर्ड अध्यक्ष के हालिया निर्देशों का असर भी इस पर दिखाई देता है। ट्रेलर में हीरो के बोले कई मसालेदार संवाद फिल्म से गायब हैं। फिल्म के संवाद मजेदार हैं। गीत-संगीत भी बुरा नहीं है।

गुलशन देवैया ने मुख्य किरदार को काफी प्रभावी तरीके से निभाया है। अपने किरदार के मनोभाव और हावभाव को प्रदर्शित करने में वह सफल रहे हैं। राधिका आप्टे का अभिनय भी अच्छा है। वह उम्मीद जगाती नजर आती हैं। ज्योत्सना के किरदार में प्रसिद्ध मराठी अभिनेत्री साई ताम्हणकर भी अच्छी लगी हैं। बाकी कलाकारों ने भी अपनी-अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय किया है। कुल मिला कर यह लगभग एक औसत फिल्म है, जिसमें बेहतर फिल्म होने की पूरी संभावना थी।


कलाकार:  गुलशन देवैया, राधिका आप्टे, साई ताम्हणकर, सागर देशमुख, वीरा सक्सेना, रशेल डिसूजा, आनंद तिवारी, नीतेश पांडेय
लेखक-निर्देशक:  हर्षवर्धन कुलकर्णी
निर्माता:  कृति नाकवा, रोहित चुगानी, केतन मारू, विकास बहल, विक्रमादित्य मोटवाणी, अनुराग कश्यप
बैनर:  शेमारू एंटरटेनमेंट, फाल्कन फिल्म्स, टेलरमेड फिल्म्स, फैंटम प्रोडक्शंस
संगीत: खामोश शाह
गीत: स्वानंद किरकिरे, विजय मौर्य, खामोश शाह

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