MOVIE REVIEW: तलवार
सन 2008 में नोएडा में हुए एक दोहरे हत्याकांड पर आधारित इस फिल्म में छद्म प्रभाव से किरदारों के नाम बेशक बदल दिये गये हों, लेकिन सब जानते हैं कि ये फिल्म आरुषि तलवार मर्डर केस पर आधारित है। खुद इसके...
सन 2008 में नोएडा में हुए एक दोहरे हत्याकांड पर आधारित इस फिल्म में छद्म प्रभाव से किरदारों के नाम बेशक बदल दिये गये हों, लेकिन सब जानते हैं कि ये फिल्म आरुषि तलवार मर्डर केस पर आधारित है। खुद इसके निर्माताओं ने यह प्रचारित किया है।
दरअसल, सात साल पहले ये मामला बेहद सनसनीखेज ढंग से सुर्खियों में आया था। लंबे समय बाद भी इस पर लोगों की नजरें लगी रहीं। हालांकि ये मामला अब भी कोर्ट में है, लेकिन इस मामले में क्या, कब, कैसे और किसके साथ हुआ, इस बारे में आमजन को बहुत ज्यादा नहीं तो एक सामान्य अंदाजा तो है ही। ये फिल्म उस अंदाजे और अलग-अलग मंचों पर कही-सुनी और 'बुनी' गयी कहानियों को दो अलग-अलग नजरियों से दिखाती है। पूरी फिल्म सेन्ट्रल डिपार्टमेंट ऑफ इन्वेस्टिगेशन (सीडीआई-असल में सीबीआई) की जांच और मामले की शुरुआती स्थानीय पुलिसिया जांच पर आधारित है।
कहानी शुरु होती है उस सुबह से जब डॉ. रमेश टंडन (नीरज कबी) के घर साफ-सफाई करने वाली एक मेड उनके घर पहुंचती है। घंटी की आवाज सुन कर रमेश की पत्नी नूतन टंडन (कोंकणा सेन शर्मा) दरवाजा खोलने के अपने कमरे से बाहर आती है। दरवाजे पर अंदर से ताला (डोर लॉक) लगा है। नूतन अपने नौकर खेमपाल को पहले आवाज देती है। वो नहीं आता तो उसका फोन लगाती है। इतने में मेड कहती है कि मैडम आप डुप्लीकेट चाबी बॉलकनी से बाहर फेंके ताला मैं बाहर से खोल दूंगी। मेड द्वारा चाबी लगाने से पहले ही दरवाजा धक्के से अपने आप खुल जाता है, तभी नूतन एक कमरे से चिल्लाती हुई बाहर निकलती है और मेड हाथ खींच कर अपनी बेटी श्रुति (आयशा परवीन) के कमरे तक ले जाती है। बेड पर श्रुति की लाश पड़ी है। नूतन रोते-चिल्लाते मेड से कहती है, 'देख खेमपाल क्या करके भाग गया'।
थोड़ी ही देर में स्थानीय पुलिस आ जाती है। शुरुआती जांच इंस्पेक्टर धनीराम (गजराज राव) के हाथों में है। हत्या का शक खेमपाल पर जाता है जो गायब है। लेकिन दो दिन बार उसकी लाश घर की छत पर मिलती है। मामला और उलझ जाता है। अपने ही स्टाइल से मामले की जांच कर स्थानीय पुलिस पर जब ऊपरी दबाव पड़ता है तो वह आनन-फानन में रमेश-नूतन को कातिल साबित कर देती है। इस सबका कुछ खास नतीजा नहीं निकलता तो इस मामले की जांच सीडीआई जांच अधिकारी अश्विन कुमार (इरफान खान) को सौंप दी जाती है, जो अपनी तेज-तर्रारी और सहज व्यवहार के लिए जाना जाता है। इस जांच में कुमार का सहायक है एसीपी वेदांत मिश्रा (सोहम शाह)। दोनों मिल कर कई अहम सूबत जुटाते हैं और पूछताछ के लिए डॉ. रमेश के कंपाउंडर कन्हैया (सुमित गुलाटी) को उठा लेते हैं।
कन्हैया का नारको टेस्ट किया जाता है, जिसमें सामने आता है कि उसने और उसके एक दोस्त ने मिल कर श्रुति की हत्या की थी। उधर, अश्विन के बॉस स्वामी (प्रकाश बेलवाडी) की रिटायरमेंट का दिन नजदीक आ रहा है और चाहता है कि उसके जाने से पहले ये जांच पूरी हो जाए। और आखिर अपनी रिटायरमेंट वाले दिन स्वामी ये घोषणा कर देता है कि उसकी टीम ने ये केस सुलझा लिया है।
स्वामी के बाद कुमार के नए बॉस के जिम्मा संभालते ही पूरी जांच की पूरी तस्वीर ही बदल जाती है। कन्हैया और उसका दोस्त बेगुनाह करार दिये जाते हैं और रमेश-नूतन को जेल भेज दिया जाता है। ओपन एंड शट केस लगने वाला ये मामला दरअसल जांच एजेंसियों के दो अलग-अलग खेमों में उलझकर रह जाता है, जहां जांच अधिकारी एक-दूसरे की जांच पर ही सवाल उठाने लगते हैं।
सात साल पहले दो कत्ल हुए। ये किसी को नहीं पता कि कातिल कौन है। पक्के तौर पर आज भी नहीं पता कि कातिल रमेश-नूतन हैं या कन्हैया और उसका दोस्त। लेकिन मेघना गुलजार ने फिल्म को इस सुनियोजित ढंग से बुना है कि आपका ध्यान एक तरफ से दूसरी तरफ जरूर मुड़ जाएगा। विशाल भारद्वाज ने फिल्म की कहानी को किसी चार्जशीट की तरह बयां किया है। जैसे आपके हाथ में कोई डॉक्यूमेंट है और उसे पहले से आखिरी पन्ने तक बेहद दिलचस्पी से पढ़े जा रहे हैं। सीन दर सीन उन्होंने एक एक किरदार के उसके खांचे में ऐसे फिट किया है कि वो यहां से वहां हिल नहीं सकता। चूंकि ये एक सत्य घटना पर आधारित फिल्म है, इसलिए इसमें ज्यादा हेर-फेर या कहिये छेड़छाड़ की गुंजाइश भी नहीं थी।
बतौर फिल्मकार मेधना का शिल्प परेशान करने वाला है। बिना कानफोड़ू पार्श्व संगीत के यह फिल्म बेहद रहस्यमय ढंग से रगों में चढ़ती-सी जाती है। ये फिल्म आपको नाटकीयता से बचाते हुए उस पूरे घटनाक्रम का हिस्सा बना देती है, जिसके बारे में सबने केवल सुना गया है। यहां दर्शाया गया है कि कैसे शुरुआती पुलिसिया जांच में लापरवाही बरती गयी। कैसे कुमार की जांच में सेंध लगाकर उसे उससे दूर किया गया। दूसरे दल ने आकर कैसे जांच का रुख मोड़ा। लेकिन इन तमाम बातों से ये केस फिर से उलझता-सा दिखता है। हत्या के एक मामले पर आधारित ये फिल्म कातिल का पता तो नहीं बताती, लेकिन उस पूरे घटनाक्रम को परदे पर बयां करके डराती जरूर है। और इस केस को फिर से एक दूसरे नजरिये से देखने के लिए 'बाध्य' करती है।
कलाकार: इरफान खान, कोंकणा सेन शर्मा, तब्बू, सोहम शाह, नीरज कबी, आयशा परवीन, गजराज राव, अतुल पॉल, सुमित गुलाटी, प्रकाश बेलवाडी
निर्देशन: मेघना गुलजार
निर्माता : विनीत जैन, विशाल भारद्वाज
संगीत-कहानी : विशाल भारद्वाज
गीत : गुलजार
रेटिंग 3 स्टार