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फिल्म रिव्यू: आईडेंटिटी कार्ड

कश्मीर आतंकवाद पर ‘मणिरत्नम’ की फिल्म ‘रोजा’ को आये दो दशक से ज्यादा हो गए हैं। इस बीच इस मुद्दे पर आई फिल्मों को आया राम गया राम से ज्यादा नहीं कहा जा सकता। इनमें शुजीत सरकार...

फिल्म रिव्यू: आईडेंटिटी कार्ड
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 29 Aug 2014 11:35 PM
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कश्मीर आतंकवाद पर ‘मणिरत्नम’ की फिल्म ‘रोजा’ को आये दो दशक से ज्यादा हो गए हैं। इस बीच इस मुद्दे पर आई फिल्मों को आया राम गया राम से ज्यादा नहीं कहा जा सकता। इनमें शुजीत सरकार की ‘यहां’ को थोड़ी-बहुत तवज्जो जरूर मिली, लेकिन इसे बड़े सितारों की बड़े बजट वाली फिल्में खा गईं। मोटे तौर पर ‘रोजा’ के बाद इस दिशा में असरकारक प्रयास न के बराबर हुए। आने वाले दिनों में विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘हैदर’ रिलीज होगी, जो विलियम शेक्सपियर के नाटक हेमलेट से प्रेरित है, पर इस फिल्म में कश्मीर के परिदृश्य में वहां की कई समस्याओं पर भी फोकस किया गया है। खासतौर पर वहां अचानक गुम होने वाले युवाओं और किशोरों पर। इस हफ्ते रिलीज हुई राहत काजमी की फिल्म ‘आईडेंटिटी कार्ड’ के बारे में बात करने से पहले कश्मीर की समस्याओं पर बनी फिल्मों पर एक नजर डालना थोड़ा जरूरी-सा लगा, क्योंकि बात अगर केवल कश्मीर की खूबसूरती को बयां करने की है तो ढेरों फिल्में हैं, लेकिन अगर बात वहां की समस्याओं की है तो फिल्में न के बराबर दिखती हैं।

‘आईडेंटिटी कार्ड’ कश्मीर में अचानक से गायब होने वाले युवाओं की कहानी के साथ-साथ वहां के बाशिंदों के लिए अनिवार्य रूप से रखे जाने वाले शिनाख्ती कार्ड के दर्द को भी बयां करती है। फिल्म की कहानी एक खबरिया चैनल की रिपोर्टर नाजिया सिद्दीकी (टिया बाजपेयी) के कश्मीर पर एक वृत्तचित्र बनाने की कवायद के साथ शुरू होती है। यहां पहुंच कर नाजिया को उसके दोस्त अजय कुमार का साथ मिलता है। अजय अपने एक अन्य दोस्त राजू गाइड (शोएब काजमी) की मदद से नाजिया को कश्मीर घुमाता-फिराता है। एक दिन नाजिया, अजय और राजू को एसटीएफ की टीम पकड़ लेती है और एक गुप्त स्थान पर ले जाकर पूछताछ करने लगती है। एसटीएफ को शक है कि ये तीनों किसी आतंकवादी संगठन से हैं। इस बारे में इन तीनों के परिजनों को भी कोई सूचना नहीं दी जाती।

एसटीएफ की टीम में शामिल  गुलाम नबी (सौरभ शुक्ला) और हाकिम दीन (बिजेन्द्र काला) इन तीनों से कड़ी पूछताछ करने लगते हैं, लेकिन  अफसर सैमुअल वर्गीस के सख्त रवैये के कारण राजू टूट जाता है। ऐसे किसी भी विषय पर बनने वाली फिल्म से दो चीजों की मांग जरूरी है। पहली है दमदार कहानी, जो पहले कभी न कही गई हो, न सुनी गई हो। और दूसरी चीज है कलाकारों की परफॉर्मेंस। कहानी में कितना नयापन होगा, इसका अंदाजा ऊपर लिखी पंक्तियों से लगाया जा सकता है। और रही बात परफार्मेंस की तो सौरभ शुक्ला, बिजेन्द्र काला और विपिन शर्मा के अलावा किसी भी कलाकार ने ऐसा नहीं किया, जिसे बयां किया जा सके। टिया बाजपेयी विक्रम भट्ट की मसाला फिल्मों की देन हैं, इसलिए उनके काम के बारे में क्या कहा जाए। फुरकान और बाकी सह-कलाकारों के रोल सिफारिशी लगते हैं। फिर भी इस डेढ़ घंटे की फिल्म में निर्देशक राहत काजमी ने कुछेक सीन्स ऐसे दिये हैं, जो थोड़ी देर के लिए ही सही, पर बांधे रखते हैं।

एक सीन में सौरभ और बिजेन्द्र पहले तो एक दूजे को कोसते से नजर आते हैं, लेकिन न जाने कब दोनों की आंखों में अपनों को खोने का गम उतरता दिखाई देने लगता है। ऐसे ही एक सीन में विपिन शर्मा रिपोर्टर की तेज-तर्रारी की परतें उधेड़ते दिखते हैं, लेकिन ये कुछ दो-चार बातें फिल्म को सिरे लगाती नहीं दिखती। शुरुआत में ही फिल्म में लंबे-लंबे सीन हैं। इस बीच आते-जाते फ्लैशबैक उलझन के सिवाय कुछ नहीं देता। संगीत के बारे में कुछ न ही कहा जाए तो बेहतर है। रघुवीर यादव जैसे बेहतरीन कलाकार को यूं ही वेस्ट कर दिया गया है। कुल मिला कर ‘आईडेंटिटी कार्ड’ एक अच्छा प्रयास हो सकता था, लेकिन विभिन्न भागों में झलकती अपरिपक्वता इसे ले डूबी।            

कलाकार: टिया बाजपेयी, सौरभ शुक्ला, रघुवीर यादव, बिजेन्द्र काला, विपिन शर्मा, मानिनि मिश्र, फुरकान मर्चेन्ट, शोएब काजमी, प्रशांत गुप्ता
निर्माता: राहत काजमी, संजय अमर, जेबा साजिद
निर्देशक: राहत काजमी
बैनर: राहत काजमी फिल्म्स, अमरचंद मोशन पिक्चर्स, रील्स प्रोड. प्रा. लि., हेल्पिंग हैंड कम्बाइन प्रोडक्शन संगीत: राजा अली

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