FILM REVIEW: पढ़ें, कैसी है 84 के दंगों पर बनी फिल्म '31 अक्टूबर'
आजकल हर दूसरी-तीसरी फिल्म को लेकर अलग-अलग तरह के कई विवाद सामने आने लगे हैं। कभी कहानी को लेकर तो कभी किसी बात या व्यक्ति के गलत चित्रण को लेकर कुछ लोग या कोई संगठन वगैराह आए दिन अदालत का दरवाजा...
आजकल हर दूसरी-तीसरी फिल्म को लेकर अलग-अलग तरह के कई विवाद सामने आने लगे हैं। कभी कहानी को लेकर तो कभी किसी बात या व्यक्ति के गलत चित्रण को लेकर कुछ लोग या कोई संगठन वगैराह आए दिन अदालत का दरवाजा खटखटाने लगे हैं। नतीजा ये कि फिल्म की रिलीज पर रोक लग जाती है और फिर आपसी समझौता या किसी विवादास्पद सीन के काटे जाने के बाद फिल्म रिलीज हो पाती है।
पढ़ें, दिल दहला देंगे 84 दंगों पर बनी फिल्म '31 अक्टूबर' के ये छह डायलॉग्स
निर्देशक शिवाजी लोटन पाटिल की फिल्म ‘31 अक्तूबर’ को लेकर बीते एक महीने खूब हो हल्ला रहा है। एक याचिका इस फिल्म पर रोक को लेकर भी लगाई गई थी। हालांकि ये फिल्म दो हफ्ते पहले रिलीज होनी थी। लेकिन कई दृश्यों की कांट-छांट के बाद अब रिलीज हुई है।
ये फिल्म पूर्व प्रधानमंत्री इंदिया गांधी, हत्याकांड पर आधारित है, जिसमें सन 1984 के दंगों का चित्रण भी शामिल है। बेशक ये विषय अपने आप में चौंकाने वाला है। क्योंकि, एक पूरी पीढ़ी है, जो उस दौर की गवाह रही है और एक पीढ़ी ऐसी भी है, जिसे इसके बारे में शायद कुछ खास पता नहीं है। इसलिए इस फिल्म की सोच, विषय और इसकी मौजूदगी से मुंह नहीं फेरा जा सकता। लेकिन क्या पाटिल ने इस फिल्म के जरिए वाकई कुछ गंभीर सवाल उठाने की कोशिश की है? क्या एक विवादास्पद विषय को छूकर उन्होंने इस विषय के प्रति गंभीर होने का संकेत दिया है। या फिर उन्होंने केवल 32 साल पुराने जख्म हरे करने का काम किया है? आइये जानते हैं।
क्या है कहानी
ये कहानी शुरू होती है दिल्ली के जनकपुरी इलाके में रहने वाले एक सिख परिवार की जिंदगी से। देविंदर सिंह (वीर दास) डेसू (उस समय दिल्ली विद्युत बोर्ड का नाम यही था) में काम करता है। उसकी पत्नी है तेजिंदर कौर (सोहा अली खान)। चार-पांच साल के दो बेटे हैं और एक बच्चा गोदियों का है। अन्य सामान्य दिनों की तरह 31 अक्तूबर, 1984 को भी देविंदर रोज की तरह अपने काम के लिए घर से निकलता है। इलाके में सभी धर्मों के लोगों से उसकी अच्छी दुआ-सलाम है। ऑफिस जाने से पहले वह गुरुद्वारे जाता है, जहां दोस्त पाल (दीपराज राणा) और तिलक (विनीत राणा) के परिवारों से उसकी मुलाकात होती है।
ऑफिस पहुंचने पर वह रोज की तरह अपने काम में जुट जाता है। सब सामान्य चल है। लेकिन कुछ देर बाद रेडियो पर चल रही एक खबर से वह चौंक जाता है। ऑफिस के अन्य लोग रेडियो पर कान लगाए हैं। पता चलता है कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सिख अंगरक्षकों ने उनकी गोली मार कर हत्या कर दी है। सिख होने की वजह से ऑफिसकर्मी देविंदर को संदिग्ध निगाहों से देखने लगते हैं। कुछ अपना रोष भी प्रकट करते हैं। ऐसे में एक सहकर्मी के कहने पर देविंदर अपने घर चला जाता है, जहां उसे पता चलता है कि तेजिंदर बाजार गई है। उधर, तेजिंदर का घर लौटना मुश्किल हो जाता है क्योंकि, शहर में दंगे भड़क चुके हैं। वह किसी तरह से घर पहुंचती है और शहर का सारा हाल अपने पति को बताती है।
रात होने को है और बीपी के मरीज देविंदर की तबियत खराब हो रही है। घर में दवाई भी नहीं है। असहाय पड़े अपने पति को तेजिंदर किसी तरह संभालती है। ऐसे में पाल और तिलक अपने एक दोस्त योगेश (लखा लखविंदर सिंह) के साथ देविंदर को पूरे परिवार को बचाने के लिए आगे आते हैं। वह कार से किसी दूसरे इलाके से उन्हें लेने पहुंचते हैं, लेकिन रास्ते में उन्हें पुलिस और बलवाईयों से बचते-बचाते आना है जो कि एक जोखिम भरा काम है।
दंगा पीड़ित एक सिख परिवार की कहानी है
मोटे तौर पर ये दंगा पीड़ित एक सिख परिवार की कहानी है, जिसमें प्रधानमंत्री के हत्याकांड पर फोकस नहीं किया गया है। शायद ये निर्माता-निर्देशक का विषय भी नहीं रहा होगा, इसलिए उस घटना का चित्रण बेहद धुंधले ढंग से पेश किया गया है। वो पूरी घटना एक तरह से सांकेतिक रूप में प्रकट की गई है, जिसका यह चित्रण बिल्कुल भी भड़काऊ नहीं दिखता। दंगे से पहले के दृश्य जबरदस्त ढंग से एडिट कर दिए गए हैं, लेकिन कई चेहरे हैं, जिन्हें साफ पहचाना जा सकता है। और भी कई उत्तेजना पैदा करने वाले दृश्य हटा दिए गए हैं।
फिल्म के एक हिस्से में पाटिल, 84 के दंगा पीड़ितों को मिलने वाले इंसाफ की गुहार करते भी दिखते हैं जो उन्हें आज तक नहीं मिला है। लेकिन एक घटना और उसके बाद के चित्रण में वह किसी भी तरह का तालमेल ही नहीं बिठा पाए हैं। यही वजग है कि ये फिल्म केवल एक घटना को भुनाने के प्रयास की तरह ही लगती है। दरअसल 1984-86 के पूरे दौर को ढंग से दिखाने की दिशा में निर्देशक अनुराग सिंह की पंजाबी फिल्म ‘पंजाब 1984’ (2014) कहीं ज्यादा सार्थक लगती है।
हालांति दोनों फिल्मों की कोई तुलना नहीं है, लेकिन ऐसे विषयों को एक दमदार कहानी के साथ-साथ शानदार अभिनय, भावनात्मक पहलू और दिल को जोड़ने वाले प्रस्तुतिकरण की जरूरत होती है, जिसमें पाटिल चूक गए हैं। एक दंगा पीड़ित परिवार की कहानी बस आप देख ही रहे हैं। उससे जुड़ नहीं पा रहे क्योंकि मुख्य सितारों के अभिनय में खिंचाव नहीं है। सोहा-वीर इस फिल्म के लिए गलत चुनाव लगते हैं, जबकि अन्य किरदार निभाने वाले कलाकार फिर भी बांधे रखते हैं। देखा जाए तो इस फिल्म में कहानी जैसी कोई चीज नहीं दिखती, जो उस पूरी घटना के प्रति असर पैदा कर सके।
अस्सी के मध्य के दौर को दर्शाने के लिए किया गया शोध भी आधा-अधूरा सा लगता है। बजाज चेतक का जो मॉडल फिल्म में दिखाया गया है, वो दरअसल 1990 के बाद आना शुरू हुआ था। जैकी श्राफ और अनिल कपूर की फिल्म ‘उत्तर दक्षिण’ 1987 में आई थी, जबकि इसका एक पोस्टर फिल्म में लगा दिखाया गया है। शैम्पू के पाउच भी नब्बे के दशक में प्रमुखता से आने शुरू हुए थे और उस दौर में कपड़ों की दुकान पर मैनीक्विंस तो कनॉट प्लेस के कुछेक बड़े शो रूमों में ही देखने को मिलते थे न कि गलियों की दुकानों पर। तब गिने-चुने घरों में मुश्किल से टेलिफोन हुआ करता था, जबकि फिल्म में फोन सुविधा गजब की दिखाई गई है। ऐसी और भी बहुत सी बातें हैं, जो फिल्म के प्रति अति उत्साह के प्रतीक के रूप में सामने आती हैं।
कलाकार: सोहा अली खान, वीर दास, दीपराज राणा, विनीत शर्मा, नागेश भोंसले, दया शंकर पांडे, लखा लखविंद सिंह, प्रीतम कांगे, सेजल शर्मा
निर्देशक: शिवाजी लोटन पाटिल
निर्माता: हैरी सचदेवा
संगीत : विजय वर्मा
गीत : महबूब, मोअज्जम आजम
रेटिंग: 2 स्टार
देखें ट्रेलर-