FILM REVIEW: रूटीन मसाला फिल्म नहीं है 'पार्च्ड' लेकिन...
फिल्मः पार्च्ड रेटिंगः 2.5 कलाकार: राधिका आप्टे, तनिष्ठा चटर्जी, सुरवीन चावला, आदिल हुसैन, लहर खान, सयानी गुप्ता, चंदन आनंद, सुमित व्यास, रिद्धि सेन, महेश बलराज निर्देशक: लीना यादव लेखक-पटकथा:...
फिल्मः पार्च्ड
रेटिंगः 2.5
कलाकार: राधिका आप्टे, तनिष्ठा चटर्जी, सुरवीन चावला, आदिल हुसैन, लहर खान, सयानी गुप्ता, चंदन आनंद, सुमित व्यास, रिद्धि सेन, महेश बलराज
निर्देशक: लीना यादव
लेखक-पटकथा: लीना यादव, सुप्रतीक सेन
निर्माता: अजय देवगन
संगीत: रसैल कारपेंटर
गीत: स्वानंद किरकिरे, हितेश सोनिक
कुछ फिल्में अपने मूल विषय और भावना से परे अन्य कारणों से सुर्खियों में आ जाती हैं। लीना यादव की यह फिल्म भी ऐसी ही है, जो अपने विषय और शिल्प के बजाए इस फिल्म की तीन में एक अभिनेत्री राधिका आप्टे के अंतरंग दृश्यों की वजह से कुछ माह पहले चर्चा में आई थी।
ये सीन ऑनलाइन लीक हुए और फिल्म को लेकर कुछ ऐसी बातें हुई, जिसका एक बारगी लगा कि ये कोई एडल्ट फिल्म है, जिसमें गरमा गरम दृश्यों की भरमार होगी। लेकिन ऐसा नहीं है। माना कि फिल्म में राधिका आप्टे के अलावा, तनिष्ठा चटर्जी और सुरवीन चावला के कुछ अंतरंग दृश्य फिल्म में है, लेकिन इससे इसकी मूल भावना कहीं से भी प्रभावित नहीं होती।
ये कहानी है गुजरात-राजस्थान की सीमा से सटे एक गांव में रहने वाली तीन महिलाओं की। लज्जो (राधिका आप्टे) का पति मनोज (महेश बलराज) उसको इसलिए मारता-पीटता है कि वह बच्चे पैदा नहीं कर सकती। अपनी आधी से ज्यादा जिंदगी विधवा बन कर गुजार चुकी उसकी सहेली रानी (तनिष्ठा चटर्जी) का एक बेटा है गुलाब (रिद्धि सेन) जो शादी के लायक तो हो गया है, लेकिन काम-धंधे के मामले में वह नालायक है, इसलिए जब कम उम्र में गुलाब का विवाह एक उससे भी कम उम्र की लड़की जानकी (लहर खान) से होता है, तो रानी को जानकी में कुछ अपनी सी ही तस्वीर दिखाई देने लगती है।
दूसरी तरफ है बिजली (सुरवीन चावला) जो कि एक नाचने-गाने वाली वेश्या है, जिस पर अब बढ़ती उम्र का खतरा मंडरा रहा है। उसका मैनेजर शहर से एक नई डांसर ले आया है, जो उससे कहीं ज्यादा दिलकश और जवान है। इन तीनों महिलाओं के अपने-अपने दुख हैं, दर्द हैं बावजूद इसके वह अपनी-अपनी जिंदगी जी रही हैं। गांव का एक युवक किशन (सुमित व्यास) गांव की महिलाओं को लेकर दस्तकारी का काम करता है, जिसके उसे अच्छे पैसे मिलते हैं और इन पैसों से गांव की कई महिलाओं के घर चलने लगे हैं।
लज्जो इस काम में बहुत होशियार है, जिसकी वजह से उसे स्थानीय प्रशासन सम्मानित करने वाला है और उसे मासिक तन्ख्वाह भी मिलने लगेगी। बावजूद इसके मनोज को उसकी कतई परवाह नहीं है। फिल्म के घटनाक्रम दर्शाते हैं कि ये तीनों महिलाएं किस तरह से अपने जीवन के लिए संघर्ष कर रही हैं और इन पर पुरुष समाज का अत्याचार बढ़ रहा है।
फिल्म में कम उम्र में शादी, शादी के लिए लड़की की खरीद-फरोख्त, बांझपन, समाज की ऊंच-नीच, परवाह, मान-सम्मान आदि बातों पर फोकस किया गया है, जो दर्शाते हैं कि दूर-दराज के गांवों में आज भी कुछ नहीं बदला है। यहां महिलाओं को टेलिविजन के लिए पंचायत से इजाजत लेनी पड़ती है और पैसों से डिश लगवानी पड़ती है। यहां लोग अरुणाचल प्रदेश से ब्याह कर आई एक महिला को विदेशी कह कर संबोधित करते हैं। कभी-कभी ऐसा लगता है कि ये अपने देश की कहानी ही नहीं है। फिल्म का शिल्प कई जगह उकसाता है कि बस, सब बदल डालो और शायद यही वजह है कि ये तीनों महिलाएं अपने जीवन को बदल डालती हैं। बंधनों को तोड़ डालती हैं।
यूं तो लीना यादव ने कोई बहुत ज्यादा नई बातें फिल्म में नहीं दिखाई हैं, लेकिन इन्हें दिखाने का प्रभावशाली ढंग इस फिल्म के प्रति उत्सुकता पैदा करता है। हालांकि फिल्म के शिल्प में कई प्रकार की गड़बड़ियां भी हैं। मसलन एक बड़ी दिक्कत इसकी भाषा को लेकर है, विभिन्न किरदारों पर कम फबती है। जैसे कि तनिष्ठा चटर्जी अपने किरदार में सही तो लगती हैं, लेकिन भाषा के स्तर पर पीछे रह जाती हैं। सुरवीन चावला के साथ भी यही दिक्कत दिखती है। सुरवीन बहुत कोशिश करती नजर आती हैं और कम प्रभावी दिखती हैं, जबकि यही बातें राधिका आप्टे के लिए प्लस प्वॉइंट बन गई हैं। आप कह सकते हैं कि इन तीनों महिलाओं में वही सबसे ज्यादा स्वाभाविक लगी हैं।
कुल मिला कर इस फिल्म के विचार को सलाम किया जाना चाहिए। बेशक इसकी मेकिंग में कुछ खामियां ही सही। फिल्म में दिखाया गया राजस्थानी लोक गीत-संगीत दृश्यों के साथ जमता है, रह रहकर आनंद देता है। ये कोई रूटीन मसाला फिल्म नहीं है। ये एक सोच उजागर करने वाली फिल्म, जिसमें समाधान की गुंजाइश को भी ध्यान में रखा गया है। ‘पार्च्ड’ बंजर धरती पर सुकून की बौछारों का काम तो करती है, लेकिन पूर्णतया नहीं।