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गीत लिखने में माहिर थे शैलेन्द्र, पढ़े उनके बारे में खास बातें

जीवन के हर रंग पर लिखे गीत दो दशक से अधिक समय तक लगभग 170 फिल्मों में जिंदगी के हर फलसफे और जीवन के हर रंग पर गीत लिखने वाले शैलेन्द्र के गीतों में हर मनुष्य स्वयं को ऐसे समाहित सा महसूस करता

एजेंसीTue, 30 Aug 2016 12:29 PM

जीवन के हर रंग पर लिखे गीत

दो दशक से अधिक समय तक लगभग 170 फिल्मों में जिंदगी के हर फलसफे और जीवन के हर रंग पर गीत लिखने वाले शैलेन्द्र के गीतों में हर मनुष्य स्वयं को ऐसे समाहित सा महसूस करता है जैसे वह गीत उसी के लिए लिखा गया हो।

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सैर के दौरान मिलती थी प्रेरणा

अपने गीतों की रचना की प्रेरणा उन्हें मुंबई के जुहू बीच पर सुबह की सैर के दौरान मिलती थी। चाहे जीवन की कोई साधारण सी बात क्यों न हो वह अपने गीतों के जरिये जीवन के सभी पहलुओं को उजागर करते थे।

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रावलपिन्डी में हुआ था जन्म

पश्चिमी पंजाब के रावलपिन्डी शहर अब (पाकिस्तान) में 30 अगस्त 1923 को जन्मे शंकर दास केसरीलाल उर्फ शैलेन्द्र अपने भाइयों मे सबसे बड़े थे। उनके बचपन में ही उनका परिवार रावलिपडी छोड़कर मथुरा चला आया जहां उनकी माता पार्वती देवी की मौत से उन्हें गहरा सदमा पहुंचा और उनका ईश्वर पर से सदा के लिये विश्वास उठ गया।

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ऐसे की थी नौकरी की शुरुआत

अपने परिवार की घिसी पिटी परंपरा को निभाते हुये शैलेन्द्र ने साल 1947 में अपने करियर की शुरुआत मुंबई में रेलवे की नौकरी से की। उनका मानना था कि सरकारी नौकरी करने से उनका भविष्य सुरक्षित रहेगा। इस समय स्वतंत्रता संग्राम अपने चरम पर था। रेलवे की नौकरी उनके स्वभाव के अनुकूल नहीं थी। कार्यालय में अपने काम के समय भी वह अपना ज्यादातर समय कविता लिखने मे हीं बिताया करते थे जिसके कारण उनके अधिकारी उनसे नाराज रहते थे।

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'जलता है पंजाब'

इस बीच शैलेन्द्र देश की आजादी की लड़ाई से जुड़ गये और अपनी कविता के जरिये वो लोगों में जागृति पैदा करने लगे। उन दिनों उनकी कविता 'जलता है पंजाब' काफी सुर्खियों मे आ गयी थी। शैलेन्द्र कई समारोह में यह कविता सुनाया करते थे।

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'बरसात' के लिए लिखा था पहला गाना

गीतकार के रूप में शैलेन्द्र ने अपना पहला गीत साल 1949 में प्रदर्शित राजकपूर की फिल्म 'बरसात' के लिये 'बरसात में तुमसे मिले हम सजन' लिखा था। इसे संयोग ही कहा जाये कि फिल्म बरसात से हीं बतौर संगीतकार शंकर जयकिशन ने अपने करियर की शुरुआत की थी। इसके बाद शैलेन्द्र, राजकपूर के चहेते गीतकार बन गये।

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मशहूर हो गई शैलेन्द्र-राजकपूर की जोड़ी

इसके बाद शैलेन्द्र और राजकपूर की जोड़ी ने कई फिल्में एक साथ की। इन फिल्मों में 'आवारा', 'आह', 'श्री 420', 'चोरी चोरी', 'अनाडी', 'जिस देश में गंगा बहती है', 'संगम', 'तीसरी कसम', 'एराउंड द वर्ल्ड', 'दीवाना सपनों का सौदागर' और 'मेरा नाम जोकर' जैसी फिल्में शामिल है।

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कवि सम्मेलन में हुई राजकपूर से मुलाकात

राजकपूर के साथ शैलेन्द्र की मुलाकात एक कवि सम्मेलन के दौरान हुई थी। राजकपूर को शैलेन्द्र के गाने का अंदाज बहुत भाया और उन्हें उसमे भारतीय सिनेमा का एक उभरता हुआ सितारा दिखाई दिया। राजकूपर ने शैलेन्द्र से अपनी फिल्मों के लिए गीत लिखने की इच्छा जाहिर की किंतु  शैलेन्द्र को यह बात रास नहीं आयी और उन्होंने उनकी पेशकश ठुकरा दी। लेकिन बाद मे घर की कुछ जिम्मेदारियों के कारण उन्होंने राजकपूर से दोबारा संपर्क किया और अपनी शर्तों पर ही राजकपूर के साथ काम करना स्वीकार कर लिया।

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विमल राय से भी खूब जमी

राजकपूर के अलावा शैलेन्द्र की जोड़ी निर्माता-निर्देशक विमल राय के साथ भी खूब जमी। शैलेन्द्र अपने करियर के दौरान प्रोग्रेसिव रायटर्स एसोसियेशन के सक्रिय सदस्य बने रहे। वो इंडियन पीपुल्स थियेटर 'इप्टा' के भी संस्थापक सदस्यों में से एक थे। शैलेन्द्र को उनके गीतों के लिये तीन बार फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

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इन फिल्मों में किया था अभिनय

शैलेन्द्र के सिने सफर में उनकी जोड़ी प्रसिद्ध संगीतकार शंकर जयकिशन के साथ खूब जमी और उनके बनाये गाने जबरदस्त हिट हुये। शैलेन्द्र ने 'नया', 'बूट पॉलिश', 'श्री 420' और 'तीसरी कसम' में अभिनय भी किया था। इसके अलावा उन्होनें फिल्म 'परख' 1960 के संवाद भी लिखे थे।

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फिल्म निर्माण भी किया

शैलेन्द्र ने वर्ष 1966 में 'तीसरी कसम' का निर्माण किया लेकिन बॉक्स ऑफिस पर इसकी असफलता के बाद उन्हे गहरा सदमा पहुंचा उसके बाद उनके मित्रों ने उन्हें किसी प्रकार का सहयोग करने से इनकार कर दिया। मित्रों की बेरूखी और फिल्म 'तीसरी कसम' की असफलता के बाद उन्हें कई बार दिल का दौरा पड़ा।

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राजकपूर से किया वादा रह गया अधूरा

13 दिसंबर 1966 को अस्पताल जाने के दौरान उन्होंने राजकपूर को आर के कॉटेज में मिलने के लिये बुलाया जहां उन्होंने राजकपूर से उनकी फिल्म 'मेरा नाम जोकर' के गीत 'जीना यहां मरना यहां' को पूरा करने का वादा किया। लेकिन वह वादा अधूरा ही रहा और अगले ही दिन 14 दिसंबर 1966 को उनकी मृत्यु हो गयी। इसे महज एक संयोग हीं कहा जायेगा कि उसी दिन राजकपूर का जन्मदिन भी था।

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