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MOVIE REVIEW: पढ़ें बिग बी और नवाज की 'TE3N' का रिव्यू

एक बांधे रखने वाली और चौंकाने वाली क्राइम थ्रिलर फिल्म के लिए सबसे जरूरी चीज क्या होती है? जाहिर है उसका सस्पेंस, जो अंत तक दर्शक को हिलने न दे, कयास लगाने का मौका न दे और सारे कयासों को धता बता कर...

MOVIE REVIEW: पढ़ें बिग बी और नवाज की 'TE3N' का रिव्यू
लाइव हिन्दुस्तान टीमThu, 09 Jun 2016 04:03 PM
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एक बांधे रखने वाली और चौंकाने वाली क्राइम थ्रिलर फिल्म के लिए सबसे जरूरी चीज क्या होती है? जाहिर है उसका सस्पेंस, जो अंत तक दर्शक को हिलने न दे, कयास लगाने का मौका न दे और सारे कयासों को धता बता कर अंत में वाकई चौंका दे। ऐसी किसी फिल्म में बाकी चीजों पर ध्यान कम जाता है। बशर्ते, उसका लेखन कसा हुआ हो, तेज तर्रार ढंग से लिखा गया हो।  

निर्देशक रिभु दासगुप्ता की फिल्म तीन बड़े विश्वास के साथ शुरू होती है। ये दिखते हुए कि एक साठ साल का व्यक्ति जान बिस्वास (अमिताभ बच्चन) पुलिस स्टेशन के चक्कर लगा लगाकर थक गया है। उसे तलाश है अपनी आठ वर्षीय पोती एंजेलिना के अपहरणकर्ता की, जो आठ साल बाद भी पुलिस की गिरफ्त से बाहर है। एंजेलिना अब इस दुनिया में नहीं है। उस हादसे में उसकी मौत हो गयी थी, जिसके लिए मार्टिन दास (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) खुद को दोषी मानता है। मार्टिन उस केस में जांच अधिकारी था, लेकिन अब वह पादरी बन गया है।

धीमी शुरुआत के बावजूद ये फिल्म उत्सुकता सी जगाए रखती है। उसकी वजह है कि जान का किरदार। एक बूढ़ा इंसान, जिसकी पत्नी नैंसी अपाहिज है। वह घर का सारा काम तो करता ही है, रोजाना पुलिस स्टेशन के चक्कर भी लगाता है और अपने स्तर पर उस केस की जांच में जुटा है। थकान उसके चेहरे से जाती ही नहीं। जैसे-जैसे वह सुरागों की कड़ी जोड़ अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ता दिखता है, तो एक तरह का जोश सा भरता जाता है। बावजूद इसके यह तमाम बातें मानो नाकाफी-सी लगती हैं।

एक दिन जान को बाजार में एक आठ साल की बच्ची दिखती है। उसने वही टोपी पहनी थी, जो अहरण वाले दिन एंजेलिना ने पहनी थी। वह अपने स्तर पर जांच करता है तो उसे कई नई बातें पता चलती हैं, जिन पर पुलिस का ध्यान कभी गया ही नहीं था। वह मार्टिन को अपने साथ जांच में सहयोग देने को कहता है। मार्टिन न चाहते हुए जान के साथ जांच में जुड़ तो जाता है, लेकिन जब सबूत एक अनजान मोड़ पर रुक जाते हैं तो वो भी निराश हो जाता है।

तभी शहर में एक और बङ्चे का अपहरण हो जाता है। मनोहर सिन्हा (सफ्यसाची चक्रवर्ती) के आठ साल के पोते रौनी का किसी ने अपहरण कर लिया है। मामले की जांच पुलिस इंस्पेक्टर सरिता सरकार (विद्या बालन) को दी जाती है जो कि जान के केस से भी अच्छी तरह से वाकिफ है और मार्टिन की सहयोगी रह चुकी है। जल्द ही सरिता और मार्टिन को ये अहसास होने लगता है कि रौनी का अपहरण भी एंजेलिना की तरह किया गया है। उन्हें पक्का विश्वास है कि ये वही किडनैपर है जो पुलिस को आठ सालों से चकमा दे रहा है। ये दोनों नए सिरे से जांच में जुट जाते हैं तो दूसरी ओर जान अपने ही ढंग से उस पुरानी जांच में फिर से जुट गया है। उसे कुछ नए सुराग मिले हैं, जिससे वह अपहरणकर्ता के गले तक बस पहुंचने ही वाला है। तो क्या वाकई इन दोनों अपहरणों के पीछे किसी एक ही व्यक्ति का हाथ है?

या फिर कोई और भी है जो़ इससे आगे कुछ भी बताने का मतलब है कहानी का कबाड़ा। सच कहें तो ये केवल फिल्म के पात्रों का वर्णन भर है। कहानी की कुछ लाइनें है, जिन पर सीन दर सीन घटनाक्रम आगे बढ़ता है। इस सवा दो घंटे की फिल्म में इंटरवल से पहले और बाद में कई ऐसे मोड़ हैं, जो बांधे रखते हैं। लेकिन रिभु और उनकी लेखक टीम ने फिल्म के क्लाईमैक्स को काफी बचकाना बना दिया है। जो फिल्म अंत से थोड़ा पहले तक बिना कयास लगाए उण्सुकता से देखी जा रही थी, अपने कमजोर क्लाईमैक्स की वजह से झुंझलाहट-सी पैदा करती है।  

कथानक में सुरागों की पड़ताल, पुलिसिया जांच में कहीं कहीं तेज तर्रारी दिखती है तो कहीं कहीं ढीलापन भी। एक सीन में साफ दिखता है कि अपहरणकर्ता अपनी आवाज के लिए टेपरिकार्डर का इस्तेमाल कर रहा है। वह उसे फोन पर टेप से बांधता भी है। बावजूद इसके मार्टिन को उसकी जांच में सिर धुनते दिखाया गया है। जो जांच इंटरवल के बाद कई अलग-अलग तरह का रोमांच पैदा कर रही थी वो अचानक से बेहद सुविधाजनक ढंग से एक प्लान के रूप में सामने आती है। कोई अचानक से हीरो बनता दिखाई देने लगता है। सहानुभूतियों के समंदर उसकी तरफ मुड़ जाते हैं। यह फिल्म साल 2013 में आयी मोंटेज नामक एक उत्तरी कोरियाई फिल्म का रीमेक है। दोनों के किरदारों और कथानक में काफी अंतर है। यह फिल्म  देख ऐसा लगता है कि आप अमिताभ की ही मसाला फिल्म आखिर रास्ता या फिर इस साल आयी उनकी फिल्म वजीर देख रहे हैं।

निराश करने वाले कथानक से परे ये फिल्म अमिताभ बच्चन के बेहतरीन अभिनय की वजह से आकर्षित करती है। जान के किरदार के लिए उनके हाव भाव, चलना फिरना बहुत सटीक लगता है। उनकी आंखों में आज भी वही एंग्री मैन वाला गुस्सा ही दिखता है। अंत के एक सीन में वह बहती आंखों से बहुत कुछ कह गये हैं। नवाजुद्दीन के किरदार में चुस्ती नहीं है। वह कम प्रभावित करते दिखे। यहां सबसे कम स्कोप विद्या के लिए रहा। वह बहुत बंधी बंधी सी रही हैं। उनसे खुलकर संवाद तक नहीं बोले गये। ऐसा लगता है कि ये रोल किसी और से भी करवाया जा सकता था।
कुल मिलाकर एक अङ्छा प्लाट होने के बावजूद ये फिल्म बहुत ज्यादा संभावनाएं पैदा नहीं करती। खासतौर से अपने क्लाईमैक्स से, जिसके आगे शायद आप खुद को छला हुआ सा महसूस करेंगे। क्योंकि सस्पेंस थ्रिलर में कुछ भी हो जाए बस सस्पेंस नहीं पता चलना चाहिये और इस फिल्म में आप अंत में कयास लगा ही लेंगे कि किसने ये सब क्यों किया़।

सितारे : अमिताभ बच्चन, विद्या बालन, नवाजुद्दीन सिद्दिकी, सफ्यासाची चक्रवर्ती
निर्देशक : रिभु दासगुप्ता
निर्माता : सुजाय घोष, गुलाब सिंह तंवर, गौरी साठे
पटकथा : सुरेश नायर, रितेश शाह, बिजेश जयनारायण
संगीत : क्लिंटन क्रीजो
रेटिंग : 2.5 स्टार

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