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FILM REVIEW: प्यार और पराक्रम की कहानी है 'मांझी'

बिहार के गया जिले में स्थित गहलोर गांव के दशरथ मांझी ने 22 साल में पहाड़ को 25 फुट की गहराई तक काट कर 360 फुट लंबी और 30 फुट चौड़ी सड़क बनाई थी और 50 किलोमीटर की दूरी को आठ किलोमीटर में तब्दील कर...

FILM REVIEW: प्यार और पराक्रम की कहानी है 'मांझी'
लाइव हिन्दुस्तान टीमTue, 25 Aug 2015 06:32 PM
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बिहार के गया जिले में स्थित गहलोर गांव के दशरथ मांझी ने 22 साल में पहाड़ को 25 फुट की गहराई तक काट कर 360 फुट लंबी और 30 फुट चौड़ी सड़क बनाई थी और 50 किलोमीटर की दूरी को आठ किलोमीटर में तब्दील कर दिया था। इस पराक्रम की प्रेरणा मांझी को अपने जीवन की एक त्रासदी से मिली थी। मांझी गांव के पास की एक पहाड़ी के पार खेतों में काम करते थे। उनकी पत्नी फाल्गुनी देवी उनके लिए हर रोज खाना-पानी लेकर वहां जाती थी। वहां तक जाने का रास्ता काफी जोखिम भरा था। एक दिन फाल्गुनी खाना देने के लिए जा रही थी, तभी फिसल पड़ीं। तुरंत इलाज न मिल पाने से उनकी मृत्यु हो गई। उन्हें समय पर अस्पताल नहीं ले जाया जा सका, क्योंकि पहाड़ी के बीच में होने की वजह से नजदीकी शहर काफी घूम कर जाना पड़ता था। 8 किलोमीटर की दूरी 50 किलोमीटर चल कर तय करनी पड़ती थी। मांझी ने पहाड़ काट का इस दूरी को पाट दिया। मांझी की इसी महागाथा का सिनेमाई संस्करण है 'मांझी द माउंटेनमैन'।

पत्नी के प्रति जिस प्रेम को मांझी ने अपनी प्रेरणा बना कर यह पराक्रम किया था, केतन मेहता ने उस प्रेम को काफी हद तक दर्शाने की कोशिश की है, लेकिन उन्होंने रोमांस का तड़का कुछ ज्यादा लगा दिया है। हां फिल्म में उन्होंने मांझी के गांव, उनके समाज और वहां के माहौल को जरूर ज्यादा प्रामाणिकता से पेश किया है। इसके अलावा मेहता ने उस दौर के सामाजिक परिदृश्य को भी दशरथ मांझी के बहाने प्रभावी तरीके से पेश किया है। ऊंची जातियों के उत्पीड़न के भी कई दृश्य फिल्म में हैं, जो उस दौर के सामाजिक ताने-बाने की झलक पेश करते हैं। केतन मेहता ने फिल्म में इस उत्पीड़न को नक्सली आंदोलन की वजह के रूप में दिखाया है। हालांकि कई दृश्यों में नाटकीयता ज्यादा है। मांझी जब धनबाद से लौट कर गांव आते हैं और रास्ते में एक मेले में उनकी मुलाकात फाल्गुनी से होती है, उस दृश्य में कॉमेडी कुछ ज्यादा है। इसी तरह से कई दृश्य और हैं, जो प्रामाणिक नहीं लगते।

फिल्म की कास्ट इसका एक मजबूत पक्ष है। मेहता ने जिन कलाकारों का चुनाव किया है, वे अपने सामाजिक परिवेश से पूरी तरह मेल खाते हैं। राजीव जैन की सिनमेटोग्राफी असरदार है। उन्होंने गहलौर की पहाडि़यों और गांव के वातावरण को बहुत प्रभावी तरीके से दिखाया है। संवाद भी मजेदार हैं। दशरथ मांझी की भूमिका में नवाजुद्दीन सिद्दीकी फिल्म में कई अहम मौकों पर एक संवाद बोलते हैं- शानदार, जबरदस्त, जिंदाबाद। फिल्म के बारे में तो ये बात मुकम्मल तौर पर नहीं कही जा सकती, लेकिन नवाज के बारे में यह बात जरूर कही जा सकती है। नवाज हर फिल्म में अभिनय का एक नया मुहावरा गढ़ रहे हैं और अपने बनाए मानकों को ही फिल्म दर फिल्म ऊंचा उठाते जा रहे हैं।

एकाध दृश्यों को छोड़ कर दशरथ मांझी के जीवन संघर्ष को उन्होंने बखूबी जिया है। फाल्गुनी की छोटी-सी भूमिका में राधिका आप्टे भी ठीक लगी हैं। मुखिया के किरदार में तिग्मांशु धूलिया ने एक बार फिर साबित किया है कि वे अच्छे अभिनेता हैं। वहीं मुखिया के बेटे के रूप में पंकज त्रिपाठी भी सही लगे हैं। प्रशांत नारायणन की भूमिका छोटी है और वे भी ठीकठाक हैं। मांझी के पिता के रूप में अशराफुल हक जानदार लगे हैं। फिल्म में कुछ खामियां भी हैं, लेकिन कोई शक नहीं कि इसने दशरथ मांझी जैसे आधुनिक तपस्वी के बारे में लोगों में दिलचस्पी जगाने का महत्वपूर्ण काम किया है।

कलाकार: नवाजुद्दीन सिद्दीकी, राधिका आप्टे, गौरव द्विवेदी, अशराफुल हक, पंकज त्रिपाठी, तिग्मांशु धूलिया, प्रशांत नारायणन, दीपा साही
निर्देशक: केतन मेहता
निर्माता: नीना लाठ गुप्ता, दीपा साही
बैनर: माया मूवीज, वायाकॉम 18 मोशन पिक्चर्स, एनएफडीसी

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