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बसपा का दलित और मुस्लिम समीकरण कारगर क्यों नहीं

बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती अपनी अधिकतर रैलियों में दलितों और मुस्लिमों को समझाती रही हैं कि वे ‘दलित की बेटी’ को देश का प्रधानमंत्री बनाने के लिए एकजुट होकर उनकी पार्टी का समर्थन...

बसपा का दलित और मुस्लिम समीकरण कारगर क्यों नहीं
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 25 Apr 2014 10:11 AM
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बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती अपनी अधिकतर रैलियों में दलितों और मुस्लिमों को समझाती रही हैं कि वे ‘दलित की बेटी’ को देश का प्रधानमंत्री बनाने के लिए एकजुट होकर उनकी पार्टी का समर्थन करें।

वह इन दोनों समुदायों को एक साथ लाने के लिए ‘देश के आजाद होने के समय से अब तक उनकी एक समान आर्थिक बदहाली’ का जिक्र करती हैं। दलित-मुस्लिम का यह समीकरण प्रत्यक्ष तौर पर बड़ा जिताऊ लगता है। उत्तर प्रदेश की आबादी में 21.1 फीसदी दलित, जबकि 18.5 फीसदी मुस्लिम हैं। मायावती कहती हैं, हमने विभिन्न 40 लोकसभा सीटों पर मुस्लिम और ब्राह्मण उम्मीदवार उतारे हैं, जबकि दलित 17 आरक्षित सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं। इसलिए मुस्लिमों और ब्राह्मणों का नैतिक जिम्मा बनता है कि वे दलित उम्मीदवारों की ओर से दिए गए समर्थन के बदले उनका समर्थन करें। 

बसपा प्रमुख के सामने मुस्लिमों को विश्वास दिलाने की चुनौती है। उनको अपनी धर्मनिरपेक्षता साबित करनी है क्योंकि बसपा अतीत में भाजपा के साथ जा चुकी है। उनके सामने अपने आधार वोटों को बिखरने न देने की चुनौती भी है। उन्हें अपने मतदाताओं को बताना होगा कि वह दलित एजेंडे पर अडिग हैं। चुनाव के आरंभिक चरणों में बसपा के आधार वोटों में से कुछ भाजपा की ओर चले गए। पार्टी संयोजकों ने अपने प्रमुख के ‘अभियान’ के लिए कड़ी मेहनत नहीं की। इसलिए अब मायावती चुनाव के बाकी चरणों में उत्तर प्रदेश में अपना एक वोट भी छिटकने देना नहीं चाहतीं। हालांकि, लखनऊ यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर काली चरण इसको महज अनुमान बताकर खारिज करते हैं। उन्होंने कहा, कैडर वोट यह नहीं देखता कि पार्टी कि ससे गठजोड़ कर रही है या किसको खड़ा कर रही है। वह मायावती और हाथी छाप के लिए बटन दबाता है। 

लेकिन सियासत में गणित के नियम जस के तस लागू नहीं होते। खासकर जब मतदाताओं के सामने अनेक विकल्प हों और परंपरागत वोट बैंक दरक रहा हो। दलित-मुस्लिम पर मायावती की बढ़ती निर्भरता से साफ है कि नरेंद्र मोदी के प्रचार से प्रभावित ब्राह्मण भाजपा की ओर जा रहे हैं। दलित संसाधन केंद्र के प्रोफेसर बद्री नारायण समरूपता में आती कमी को रेखांकित करते हैं।

वह कहते हैं कि मुस्लिम अक्सर प्रभावी समुदाय का समर्थन करते हैं। दलितों के साथ उन्हें भी खासकर शहरी इलाकों में छला गया है। फिलहाल मुस्लिम मोदी को रोकने वाली पार्टी, चाहे बसपा हो सपा को जिताने के लिए वोट देंगे। मायावती फिलहाल अपने महत्वाकांक्षी दलित-मुस्लिम जोड़ को हकीकत में बदलने की भारी चुनौती का सामना कर रही हैं। मसला यह है कि ये दोनों समुदाय सांप्रदायिक रूप से एक ही खांचे में नहीं आते।

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