कवि की दुनिया के अंधेरे-उजाले
मुक्तिबोध ने संघर्षपूर्ण जीवन जिया और इस संघर्ष को अपनी विराट रचनात्मकता का आधार बनाया। नागपुर में बिताए उनके दिनों और मित्रों पर मुक्तिबोध के आत्मीय कांतिकुमार जैन की एक किताब ‘महागुरु...
मुक्तिबोध ने संघर्षपूर्ण जीवन जिया और इस संघर्ष को अपनी विराट रचनात्मकता का आधार बनाया। नागपुर में बिताए उनके दिनों और मित्रों पर मुक्तिबोध के आत्मीय कांतिकुमार जैन की एक किताब ‘महागुरु मुक्तिबोध - जुम्मा टैंक की सीढ़ियों पर’ पिछले दिनों आई है। आज प्रस्तुत हैं इसी किताब के कुछ अंश
सन 1949 में नागपुर आने पर काफी अर्से तक मुक्तिबोध इलाहाबाद, बनारस और फिर जबलपुर के अपने अनुभवों के कारण बेहद आशंकाग्रस्त रहते थे। उन्हें हवा में तलवारें दिखाई देतीं। रात को सपने में मोटी-मोटी छिपकलियां उनके ऊपर गिरतीं, वे पसीने-पसीने हो जाते। एक रात तो वे अपनी खटिया से धम्म से नीचे जमीन पर गिर गए थे-अ-गा-आ-ई बर्राते हुए। यदि कोई आदमी उनके पीछे-पीछे आ रहा होता तो उन्हें लगता कि वह सी. आई. डी. का आदमी है और उनकी जासूसी के इरादे से उनका पीछा कर रहा है। कहते- साले, सरकारी कुत्ते। ‘पर्सीक्यूशन मेनिया’ शायद इसी को कहते हैं। नागपुर में काफी दिनों तक यह मेनिया बीच-बीच में उभर जाता। नागपुर में एक मुहल्ला है जूनी शुक्रवारी। यह निम्न मध्यमवर्ग का मुहल्ला था उन दिनों। इस मुहल्ले में एक तालाब है, जिसे उन दिनों जुम्मा टैंक कहते। शुक्रवारी तालाब। इस तालाब के चारों ओर सीढ़ियां थीं। आप सीढ़ियों पर बैठ जाएं, आपके पांव पानी को छू सकते थे। जुम्मा टैंक की सीढ़ियां नागपुर में नए-नए आए मुक्तिबोध का प्रिय स्थान थीं। वे रात देर तक इन सीढ़ियों पर बैठे रहते। कभी अकेले, कभी मित्रों के साथ। इन सीढ़ियों पर बैठने वालों में ‘विद्रोही’ जी उनके अनन्य सहचर थे। महागुरु विशेषण उन्हीं का दिया हुआ था। जुम्मा टैंक के बाएं कोने में एक पान-बीड़ी की गुमटी थी।
‘विद्रोही’ और मुक्तिबोध वहां रुकते, शेर छाप बीड़ी का एक कट्टा लेते, दुकान में टंगी रस्सी के जलते हुए सिरे से दोनों अपनी-अपनी बीड़ियां सुलगाते। एक रात एक नाटा सा, भारी सा, पसीने से गंधाता, उलझे बालों और लाल आंखों वाला आदमी उस गुमटी पर आया। उसने भी बीड़ी का एक कट्टा लिया, एक बीड़ी सुलगाई, सुट्टा मारा और दुकानदार से कुछ खुसुर-पुसुर की। शायद कट्टे के दाम अपने उधारी के खाते में लिखने को कह रहा हो। मुक्तिबोध ‘विद्रोही’ को ठेलते हुए जुम्मा तालाब की अंधेरी सीढ़ियों तक ले गए। चारों ओर देखा, सीढ़ियों पर बैठे कि कहा- पार्टनर, आपने मार्क किया कि वह आदमी गुमटी वाले से क्या खुसुर-पुसुर कर रहा था, जरूर मेरे बारे में दरयाफ्त कर रहा होगा। पार्टनर, हम लोग कल से अपने घूमने का रास्ता बदल लेंगे। अब यह जगह सुरक्षित नहीं रह गई। ‘विद्रोही’ बोले, महागुरु आप तो अब भी डरते हैं। ‘विद्रोही’ को लगा कि मुक्तिबोध के ‘पर्सीक्यूशन मेनिया’ को कुछ कम करने के लिए उस आगंतुक के बारे में विस्तार से बताना जरूरी है। ‘विद्रोही’ ने बताया कि वो आदमी नागपुर की प्रसिद्ध एम्प्रेस मिल में काम करता है। शाम की पाली निपटा कर अपनी खोली में वापिस लौट रहा है। उसके पास बीड़ी का कट्टा लेने के लिए नगदी पैसे नहीं होंगे, सो उधारी के लिए गुमटी वाले से चिरौरी कर रहा होगा। आज महीने की 25 तारीख है। फिर आवाज लगाई- वामन्या, इकड़े आ। वामन्या आया। मुक्तिबोध बेहद टेंस थे। ‘विद्रोही’ ने वामन्या से पूछा- तेरी मुलगी का ताप अब कैसा है? उसे डॉक्टर को दिखाया या नहीं?
बेचारा डॉक्टर के पास क्या जाता? उसे इस महीने की पगार मिलने में पांच-छह दिन बाकी थे। ‘विद्रोही’ ने उसे दिलासा दिया- कोई बात नहीं, महाल में पहचान के एक डॉक्टर हैं प्रधान। मैं तुम्हें उनके नाम चिट्ठी दे दूंगा। वे तुम्हारी लड़की को दवा दे देंगे। वामन्या खुश हो गया। जब वह चला गया तो मुक्तिबोध ‘विद्रोही’ से बोले- वाह साहब, आप भी खूब हैं। आप इन लोगों से दोस्ती रखते हैं। ये तो बिल्कुल अपन जैसे हैं। मैं तो फोकट में ही डर रहा था।.. अब तक मुक्तिबोध को नागपुर आए चार-पांच बरस हो चुके थे। यहां अब खुफिया पुलिस का भय तो नहीं था, पर आर्थिक तंगी, फटेहाली कम नहीं थी। ज्यों-ज्यों समय बीत रहा था, कमबख्त बढ़ती ही जा रही थी। मुक्तिबोध का घर क्या था, ‘डेन’ था। न हवा, न रोशनी। वे नई शुक्रवारी में रहते थे। सर्किल नं. 2 की विष्णुदाजी गली के मकान नं. 86 में। कहने को तो यह नई शुक्रवारी थी, पर अब यह भी पुरानी पड़ गई थी।
नागपुर में नव धनाढ़यों के, नए अभिजातों के नए मुहल्ले बस गए थे।.. मुक्तिबोध गरीबों की संस्कृति वाले उस मुहल्ले में रहते थे, जहां लोग कुलीगिरी करते थे, मजदूरी करते थे, रिक्शा चलाते थे, क्लर्की करते थे, टाइमकीपरी करते थे, दर्जीगिरी करते थे। 150+32=182 रुपए मासिक पगार पाने वाले क्लर्क मुक्तिबोध को कोई धनतोली या धरमपेट में मकान थोड़े ही मिला! मुक्तिबोध के घर के सामने खपरैल का बरांडा था। मुश्किल से 10 गुणा 12 का। बरांडे में फटकी थी, दर नहीं था। सामने जाफरी शायद लकड़ी की थी-आड़ी-तिरछी। बीच-बीच में फट्टे सड़ गए थे। घर में न नल था, न ही कुआं। सौ गज दूर के सार्वजनिक नल से पानी भरना होता, लाइन में लगकर। बरांडे में एक पीढ़ा रहता, जिस पर बनियान उतारकर, पालथी मारकर मुक्तिबोध लकड़ी की तख्ती पर दूतावासों से आए हुए बुलेटिनों की कोरी पीठ पर कविताएं लिखते, कहानी, लेख सभी कुछ। अपने टुटहे फाउंटेन से। वहीं आने-जाने वालों के लिए दो मोढ़े थे- भरू के- जिन पर पुराने घिसे हुए साइकिल के टायरों की गोट लगी थी। दीवारों पर से पलस्तर झड़ रहा था-भीतर की ईंटें दिखाई देतीं। भीतर दो कमरे थे-पीछे की ओर एक बरांडा, सामने के बरांडे जैसा ही, वह रसोईघर था। पीछे आंगन छोटा सा, तुलसी चौरा।
चांदनी रातों में और दिन के उजाले में बाहर वाले ‘स्टडी रूम’ के कबेलुओं की सेंधों से ज्योत्सना अथवा धूप की किरणें छन-छन कर आतीं और दीवारों पर ज्यामितिक आकृतियां बनातीं। इन आकृतियों में मुक्तिबोध को फेंटेसियां दिखाई देतीं। मुक्तिबोध अपनी पांडुलिपियों का कई-कई बार संशोधन करते। पुराना ड्राफ्ट नए ड्राफ्ट से मेल नहीं खाता। एक कोने में फटे हुए पुराने ड्राफ्टों का ढेर बढ़ता जाता—ये कागज चूल्हा परचाने के काम आते। भीतर टिन का एक संदूक था-जंग खाया हुआ, जिसमें सारी ‘अंडर रिपेयर’ रचनाएं सुरक्षित रख दी जातीं। मुक्तिबोध-साहित्य का सेफ वाल्ट। मुक्तिबोध न अपने साहित्य का फाइनल ड्राफ्ट तैयार कर पा रहे थे, न अपने जीवन का। फटे हुए कागजों से चूल्हा भी कब तक जलता? चाय कड़क, मीठी, कम से कम दूध वाली, काली। पुराने, बदरंग कपों में। चाय में कभी जले हुए कागजों की गंध आती, कभी गोबर के कंडों की। अपने को चैतन्य रखने का यही तरीका था। महीने के चार-पांच दिन पति-पत्नी के इसी चाय के सहारे कटते—निजी चाय के सहारे। यदि महीना इकतीसा होता तो चायाश्रित दिनों की संख्या एक और बढ़ जाती। खुश है जमाना, आज पहली तारीख है, पर यह खुशी केवल एक दिन की ही रहती।
‘कोई दिन खाजा, कोई दिन लाडू, कोई दिन फाकमफाका जी।’ खाजा और लाडू पहली तारीख को संभव होते, बाकी दिन तो फाकमफाका में या उसके इंतजार में ही गुजरते। तनख्वाह मिलती। पहले ही दिन उधारी पटाने में सब खल्लास। किसी एक की उधारी पटानी होती क्या? किराने वाला है, गुमटी वाला है, घासलेट वाला है, डॉक्टर है, दवाई वाला है। छोटे-मोटे कर्जे पट जाते, पर पचास रुपए का कर्ज हो, सौ रुपए का कर्जा हो तो भाऊ, अगले महीने तक सबुर करनी होगी। जिन लोगों की उधारी नहीं पटाई गई है, मुक्तिबोध उन गलियों को बरकाकर अपने आफिस जाते। ऐसी गलियां कम ही होतीं जिनमें लेनदार न रहते हों। भूत-गलियां। जिन्दगी भूरी नहीं, खाकी है। क्या करें, आत्महत्या कर लें क्या? एक बारगी सब छुट्टी। एक दिन ऐसी ही इन अंधेरी गलियों में बुधवारी बाजार में एक तरकारी बेचने वाले से मुलाकात हो गई। मुक्तिबोध लिखते हैं, ‘बड़ा ही मजा आया किन्तु उसके पास सिर्फ एक बड़े कद्दू और थोड़े धनिए के अलावा कुछ न था। किसी जमाने में उसने मुझे जबलपुर में देखा था। बस इत्ती सी बात हमारे आपसी आनन्द के लिए काफी थी। अपनी जिन्दगी की खूबी बतलाते हुए उसने बड़े ही मनमौजीपन से कहा, ‘क्या है बाबूजी, इसी तरह सुबह-शाम काम करते-करते बीच ही में खट से..।’ उसका मतलब हार्टफेल से था।
मुक्तिबोध ने उसके चेहरे को ध्यान से देखा। ‘उस पर निराशा की कोई छाया नहीं थी। उसके बदले उद्दाम, उद्धत, सुनहले आनन्द की झाईं उसके मुख पर डोल रही थी।’ ‘उस कद्दू बेचने वाले में अपनी जिन्दगी के प्रति भयानक यथार्थ की स्वीकृति है, साथ ही अपनी मस्ती कम न करने की दुर्दान्त वृत्ति भी।’ और ‘उसकी अंधेरी जिन्दगी के ये ही सर्वोच्च क्षण हैं।’ तो मालिक, तुम्हें क्या हो गया? मुक्तिबोध मन को आश्वस्त करते। मन ही मन दोहराते-पार्टनर, डरना नहीं लड़ना है।
One fight more, the last and the best.
(साभार : सामयिक प्रकाशन)