सही फैसले का समय
यह बहुत पहले से सब जानते हैं कि राजनीतिक पार्टियां नए संविधान को लेकर किसी करार पर पहुंचने में नाकाम हो गई हैं। इस नाकामी की वजह सिर्फ यही नहीं है कि वे संघवाद जैसे मसले पर एकराय नहीं बना सकीं, बल्कि...
यह बहुत पहले से सब जानते हैं कि राजनीतिक पार्टियां नए संविधान को लेकर किसी करार पर पहुंचने में नाकाम हो गई हैं। इस नाकामी की वजह सिर्फ यही नहीं है कि वे संघवाद जैसे मसले पर एकराय नहीं बना सकीं, बल्कि उनमें प्रक्रिया को लेकर भी काफी मतभेद हैं। पहली संविधान सभा के दौरान नेपाली कांग्रेस और सीपीएन-यूएमएल ने प्रस्ताव रखा था कि पार्टियों को फिलहाल संविधान को प्रकाशित करने देना चाहिए व संघवाद के मुद्दे को भविष्य के लिए छोड़ देना चाहिए। पर यूसीपीएन (माओवादी) और मधेसी पार्टियों ने तब उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था, क्योंकि ऐसे में संघवाद अनंत काल के लिए टल जाता। इसी तरह, दूसरी संविधान सभा से यह अपेक्षा थी कि वह इस साल की 22 जनवरी तक सर्वसम्मति से नया संविधान तैयार कर लेगी, इस दिन नेपाली कांग्रेस, यूएमएल व मधेसी जनाधिकार फोरम ने वैसा ही प्रस्ताव रखा। पर यूसीपीएन (माओवादी) के मुखिया पुष्प कमल दहल और दूसरे मधेसी नेताओं ने इस पेशकश को यह कहते हुए ठुकरा दिया कि सब कुछ एक साथ तय होना चाहिए। उन्हें आशंका थी कि अगर संघीय बहस के कुछ मुद्दों पर उन्होंने अभी समझौता कर लिया, तो उन्हें अपने एजेंडे को आगे रखने में नुकसान उठाना पड़ जाएगा। वैसे, हाल के दिनों में, जब यूसीपीएन (माओवादी) के नेतृत्व ने अपने पुराने रुख से पीछे हटते हुए लचीलेपन का परिचय दिया था, तब सियासी पार्टियों के आपसी रिश्ते सुधरने लगे थे। नेपाली कांग्रेस व यूसीपीएन (माओवादी) के बीच जमी बर्फ भी काफी पिघल गई थी, हालांकि मधेसी पार्टियों में यूसीपीएन को लेकर कड़वाहट बनी रही। उपेंद्र यादव व राजेंद्र महतो जैसे मधेसी नेता लगातार इस रुख पर कायम रहे कि सभी मसलों को एक साथ सुलझाने की जरूरत है और संघीय सवाल को छोड़ा नहीं जा सकता। मधेसी पार्टियों को यह समझना चाहिए कि इस वक्त अगर वे लचीला रुख अपनाती हैं, तो उन्हें फायदा होगा। संविधान सभा में उनकी जितनी संख्या है, उसके आधार पर वे अपने एजेंडे के लिए बहुत लड़ नहीं सकतीं। इसलिए इन नेताओं को सकारात्मक रुख अपनाना चाहिए।
द काठमांडू पोस्ट, नेपाल