फोटो गैलरी

Hindi Newsसंविधान की कसौटी

संविधान की कसौटी

उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति के लिए मौजूदा कॉलेजियम व्यवस्था को खत्म कर नई व्यवस्था बनाने के वास्ते पेश किया गया विधेयक राज्यसभा से भी पारित हो गया। अब इसे विधानसभाओं में भेजा जाएगा। जब कम...

संविधान की कसौटी
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 15 Aug 2014 10:49 PM
ऐप पर पढ़ें

उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति के लिए मौजूदा कॉलेजियम व्यवस्था को खत्म कर नई व्यवस्था बनाने के वास्ते पेश किया गया विधेयक राज्यसभा से भी पारित हो गया। अब इसे विधानसभाओं में भेजा जाएगा। जब कम से कम आधे राज्यों की विधानसभाएं इसे पास कर चुकेंगी, तब यह राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए जाएगा और बाकायदा कानून बन जाएगा। इस बिल के नुक्तों पर बात करने के पहले यह बात कहना जरूरी है कि बड़े दिनों बाद कोई महत्वपूर्ण बिल संसद के दोनों सदनों से पास हुआ है। संप्रग-2 के दौर में ज्यादातर विधायी काम अटके हुए थे और मुश्किल से आम बजट व रेल बजट जैसे अनिवार्य काम दोनों सदनों में हो पाते थे।

इस बिल को पेश करना और इसे इतनी जल्दी पास करा लेना यह बताता है कि सरकार तेजी से कामकाज करना चाहती है। इस बिल का पास होना लोकसभा में भाजपा के स्पष्ट बहुमत और विपक्ष की खस्ता हालत को दिखाता है। इससे यह भी पता चलता है कि इस सरकार का संसदीय प्रबंधन चुस्त-दुरुस्त है, क्योंकि राज्यसभा में यह बिल लगभग सर्वसम्मति से पास हो गया, सिर्फ एक सदस्य राम जेठमलानी ने विरोधस्वरूप मतदान में हिस्सा नहीं लिया। यदि संसद के आने वाले सत्रों में भी इतनी तेजी व शांति से कामकाज चलता रहा, तो शायद बहुत सारा महत्वपूर्ण संसदीय काम इस कार्यकाल में हो सकता है।

इस बिल को कानून बनाने से पहले सरकार को एक बड़ी चुनौती से निपटना पड़ेगा। और यह चुनौती न्यायपालिका से आएगी, जहां इस बिल के संविधान सम्मत होने की जांच होगी। न्यायिक प्रणाली से जुड़े कई लोग कॉलेजियम व्यवस्था के पक्षधर हैं, तो कई बिल के मौजूदा स्वरूप से नाखुश हैं। संविधानविद फली नरीमन इस बिल से नाखुश हैं, तो पूर्व कानून मंत्री कपिल सिब्बल घोषणा कर चुके हैं कि वह इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देंगे। इस बिल को लेकर आपत्तियां मुख्यत: चयन समिति में न्यायपालिका से इतर सदस्यों को लेकर है। कुछ लोगों का कहना है कि कानून मंत्री को इस समिति में नहीं होना चाहिए, क्योंकि कानून मंत्री अमूमन वकील होते हैं और उनके अपने पूर्वाग्रह हो सकते हैं।

राम जेठमलानी का कहना है कि बार काउंसिल के प्रतिनिधि का इस समिति में होना जरूरी है, क्योंकि वे लोग उम्मीदवारों के बारे में बेहतर जानते हैं। इस पर भी आपत्ति की गई है कि बिल में प्रावधान है कि अगर समिति के छह में से दो सदस्य किसी नाम से असहमत हैं, तो वह नाम स्वीकृत नहीं होगा। न्यायिक व्यवस्था से जुड़े लोगों को यह लगता है कि इस तरह बाहरी लोग प्रधान न्यायाधीश और दो वरिष्ठ न्यायाधीशों की राय को वीटो कर सकते हैं। संसद में कुछ सदस्यों की राय यह भी थी कि न्यायपालिका में पिछड़े, अनुसूचित जाति-जनजाति के लोगों का प्रतिनिधित्व कम है, इसलिए समिति में इनका प्रतिनिधित्व होना चाहिए।

देश के प्रधान न्यायाधीश आर एम लोढा कॉलेजियम व्यवस्था के पक्ष में अपनी राय रख चुके हैं, लेकिन बिल पास होने के बाद सुप्रीम कोर्ट परिसर में हुए स्वतंत्रता दिवस समारोह में उन्होंने इस मुद्दे पर बोलने से परहेज किया। उन्होंने यह कहा कि भारत में विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका में मौजूद लोग एक-दूसरे का सम्मान करते हैं, इतनी परिपक्वता उनमें है। इसी परिपक्वता के भरोसे यह कहा जा सकता है कि जब यह बिल सुप्रीम कोर्ट के सामने आएगा, तो फैसला संविधान के पैमाने पर होगा, न्यायविदों की अपनी राय जो भी हो। सच तो यह भी है कि कोई व्यवस्था निर्दोष नहीं होती, उसे अच्छा या बुरा बनाने में लोगों की नीयत और स्थापित परंपराओं का बड़ा महत्व होता है।

न्यायिक नियुक्तियों से संबंधित बिल संसद से पास हो गया, हालांकि उसे न्यायपालिका में सांविधानिकता की कसौटी से गुजरना होगा।

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें
अगला लेख पढ़ें