दहेज में किडनी
भारतीय समाज में महिलाओं की दशा सुधारने की तमाम कोशिशें की गई हैं, लेकिन कई मायनों में स्थिति सुधरी नहीं है। महिलाओं की स्थिति जो भी सुधरी है, उसके पीछे कानूनी व आर्थिक दबाव हैं, तो कुछ आधुनिकीकरण की...
भारतीय समाज में महिलाओं की दशा सुधारने की तमाम कोशिशें की गई हैं, लेकिन कई मायनों में स्थिति सुधरी नहीं है। महिलाओं की स्थिति जो भी सुधरी है, उसके पीछे कानूनी व आर्थिक दबाव हैं, तो कुछ आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में उन्हें बेहतर हक मिले हैं। लेकिन एक वक्त के बाद समाज सुधार के लिए जो आंदोलन किए जाने जरूरी थे, वे नहीं हुए और उपभोक्ता संस्कृति ने कुछ बुरी परंपराओं को मजबूत कर दिया। दहेज की प्रथा इनमें से एक है। दहेज प्रथा के अमानवीय स्वरूप की कई घटनाएं आए दिन सुनने में आती हैं, लेकिन झारखंड के हजारीबाग जिले से आई खबर अविश्वसनीय लगने की हद तक भयानक है। खबर यह है कि दहेज के रूप में एक महिला ने अपने पति को अपनी किडनी दे दी, लेकिन उसकी प्रताड़ना नहीं रुकी। किडनी प्रत्यारोपण के छह महीने के बाद इस महिला ने आग लगाकर आत्महत्या कर ली। महिला के परिजनों का आरोप है कि शादी के बाद से इस महिला को दहेज के लिए प्रताड़ित किया जाता था। जब उसके पति की दोनों किडनी खराब हो गई, तो उसके ससुराल वालों ने उससे यह लिखित समझौता किया कि अगर वह अपनी किडनी अपने पति को दे, तो वे दहेज की मांग छोड़ देंगे, लेकिन महिला के किडनी दे चुकने के बाद भी उन्होंने उसे तंग किया।
दहेज में मकान, कार, घरेलू सामान, गहने और नकदी मांगने का चलन तो मौजूद है ही, बल्कि बढ़ भी रहा है, लेकिन अगर मामला शरीर का अंग मांगने तक पहुंच जाए, तो इस कुप्रथा को सख्ती से खत्म करने के बारे में गंभीरता से सोचा जाना चाहिए। अगर कोई महिला प्रेमवश या उदार भाव से भी अपनी किडनी अपने बीमार पति को दान करे, तो भी समझा जा सकता है, लेकिन दहेज की तरह या दहेज प्रताड़ना के एवज में अगर किडनी दी जाए या जबर्दस्ती दिलवाई जाए, तो यह मानवीयता की हद से परे है। वास्तविकता यह है कि दहेज आधुनिक समाज में मानवीयता से नीचे गिराने वाली प्रथा है। फर्क सिर्फ यह देखा जा सकता है कि कौन किस हद तक नीचे गिरता है। अगर यह मान भी लिया जाए कि मामला दहेज का नहीं था, फिर भी वह महिला के उत्पीड़न का तो था ही। उसने शायद यह सोचा हो कि अपनी किडनी का दान करने के बाद उसका गृहस्थ जीवन बेहतर हो पाएगा। उसे इस हद तक मजबूर करना भी आपराधिक अमानवीयता है। हमारे समाज में महिलाओं से यह उम्मीद की जाती है कि वे लगातार एक के बाद एक समझौते करते हुए अपने पारिवारिक जीवन को किसी तरह बचाकर रखें, जबकि समझौते में यह गारंटी नहीं होती कि यह आखिरी समझौता है।
विवाह और स्त्री-पुरुष संबंधों की रूढ़ और संकीर्ण समझ में यह बात कहीं नहीं आती कि शादी का आधार समझौता या लेन-देन नहीं, बल्कि परस्पर प्रेम है। इसी समझौते और लेन-देन को शादी का आधार मृत महिला के परिवार ने भी समझा होगा। इसीलिए उन्होंने महिला की मौत होने तक इंतजार किया। अगर शादी के बाद से ही महिला को प्रताड़ित किया जा रहा था, तो उन्हें अपनी बेटी की सुरक्षा के लिए पहले ही कुछ करना था। इस बात की उनके पास क्या गारंटी थी कि किडनी ले चुकने के बाद ससुराल पक्ष के लोग उस समझौते का सम्मान करेंगे। भारतीय समाज जब तक शादी को सौदेबाजी और लेन-देन का रिश्ता मानता रहेगा, तब तक इस तरह के वीभत्स कांड समाज में होते रहेंगे। उपभोक्ता संस्कृति की चमक-दमक ने भारतीय विवाह संस्था के इस स्वरूप को और ज्यादा बढ़ा दिया है। महिलाओं का सम्मान और दहेज का दानव साथ-साथ नहीं रह सकते। इसके लिए कानून से आगे बढ़कर अब सामाजिक संगठनों को सक्रिय होना होगा।