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ठोढ़ी और सभ्यता

वैज्ञानिकों के दिमाग में अजीब-अजीब सवाल उठते हैं, लेकिन इन सवालों के जवाब ढूंढ़ने की कोशिश में जो ज्ञान मिलता है, वह बहुत मूल्यवान होता है। ऐसा ही एक सवाल कुछ वैज्ञानिकों के दिमाग में उठा कि इंसान को...

ठोढ़ी और सभ्यता
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 19 Apr 2015 08:50 PM
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वैज्ञानिकों के दिमाग में अजीब-अजीब सवाल उठते हैं, लेकिन इन सवालों के जवाब ढूंढ़ने की कोशिश में जो ज्ञान मिलता है, वह बहुत मूल्यवान होता है। ऐसा ही एक सवाल कुछ वैज्ञानिकों के दिमाग में उठा कि इंसान को ठोढ़ी क्यों होती है? स्तनधारी जीवों में इंसान के अलावा किसी और जीव की ठोढ़ी नहीं होती, सिर्फ हाथियों के निचले जबड़े के नीचे कुछ उभरी हुई हड्डी होती है, लेकिन मनुष्य की जो करीबी प्रजातियां हैं, तरह-तरह के वानर हैं, उनमें से किसी में ठोढ़ी नहीं होती, यहां तक कि हमारे सबसे करीबी रिश्तेदार नीएंडरथल मानव की भी ठोढ़ी नहीं थी। हमारी प्रजाति में ठोढ़ी के विकास को लेकर पिछली एक सदी में नृवंशशास्त्रियों में तरह-तरह के कयास लगाए गए। सबसे ज्यादा चर्चा इस कयास की हुई कि संभवत: ठोढ़ी का विकास निचले जबड़े को मजबूत बनाने के लिए हुआ। जबड़े की हड्डी का भारी और मजबूत होना चबाने की प्रक्रिया से संबंधित था।

पिछले कुछ साल में इस अवधारणा को खारिज कर दिया गया, क्योंकि कुछ वैज्ञानिक प्रयोगों से यह गलत सिद्ध हुई। कुछ वैज्ञानिकों ने शिशुओं से लेकर 20 की उम्र के आसपास तक ठोढ़ी और जबड़े की मांसपेशियों के विकास का अध्ययन किया। शिशुओं में ठोढ़ी लगभग नहीं होती। इन वैज्ञानिकों ने पाया कि ठोढ़ी की मौजूदगी से चबाने की ताकत नहीं बढ़ती, बल्कि इससे जबड़े की ताकत कम ही होती है। यह तर्क इसलिए भी गड़बड़ है, क्योंकि यह भले ही सच हो कि चबाने की प्रक्रिया में जबड़ा जबर्दस्त ताकत का इस्तेमाल करता है, यानी लगभग 12 किलोग्राम प्रति वर्ग सेंटीमीटर, लेकिन नीएंडरथल मानव बिना ठोढ़ी के थे और उनके जबड़े ज्यादा ताकतवर थे। इसके बाद इन्हीं वैज्ञानिकों ने एक दूसरी अवधारणा को ज्यादा तर्कसंगत पाया। गहरे अध्ययन के बाद उन्होंने पाया कि दरअसल आदमी की ठोढ़ी नहीं विकसित हुई है, विकास की प्रक्रिया में अन्य वानरों या हमारे आदिम पुरखों के मुकाबले हमारे चेहरे की अन्य हड्डियां सिकुड़ी हैं, यानी हमारे चेहरे कुल जमा सिकुड़ गए हैं, इसलिए हमारी ठोढ़ी की हड्डी ज्यादा उभरी नजर आती है।

हम जानते हैं कि इंसानों के मुकाबले अन्य वानरों के माथे और भौंहों की हड्डियां ज्यादा उभरी हुई होती हैं और बाकी चेहरा भी बाहर की ओर निकला हुआ होता है। ऐसा क्यों हुआ? दरअसल, लगभग 80,000 साल पहले अफ्रीका से मानव प्रवास बाकी दुनिया की तरफ शुरू हुआ। फिर मनुष्यता के विकास क्रम में बस्तियां बसीं। पहले मनुष्य सिर्फ शिकार करता था और जंगल से फल-फूल बटोरता था। उसने खेती करना और बसना सीखा। इस क्रम में सामाजिक संगठन विकसित हुए। जब आदमी जंगलों में अन्य जानवरों की तरह रहता था, तो आक्रामकता उसका सबसे महत्वपूर्ण गुण था। नृवंशशास्त्रियों ने यह पाया है कि अन्य वानरों की तरह का चेहरा ज्यादा टेस्टास्टेरॉन हारमोन की मौजूदगी यानी आक्रामकता और ताकत को दर्शाता है। जब सामाजिक संगठन बनने लगे, तो मित्रता, सहयोग और समझदारी जैसे गुणों को ज्यादा महत्व मिलने लगा। इसके अलावा मनुष्य ने चेहरे की बनावट देखकर चरित्र का अंदाजा लगाना शुरू किया, तब विश्वसनीयता और मित्रता जताने वाली चेहरे की बनावट को प्राथमिकता मिलने लगी। ऐसे में, चेहरों पर टेस्टोस्टेरॉन का असर कम हुआ और चेहरे ज्यादा सौम्य और सुडौल होने लगे। हालांकि मानव विकास की जटिल यात्रा में किसी बात का एक ही कारण मान लेना सरलीकरण हो सकता है। जिस सवाल से शुरुआत हुई थी, वह जरूर अजीब था, लेकिन जवाब में हमने मानव सभ्यता के एक महत्वपूर्ण तथ्य को तो समझ लिया।

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