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उच्च शिक्षा का मखौल

दिल्ली विश्वविद्यालय में चार वर्षीय कोर्स को लेकर जो घमासान हुआ है, उसमें सही-गलत का फैसला करना मुश्किल है। इसकी वजह यह है कि शिक्षा के क्षेत्र में इतनी अराजकता और राजनीति व्याप्त हो गई है कि जो कुछ...

उच्च शिक्षा का मखौल
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 23 Jun 2014 09:19 PM
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दिल्ली विश्वविद्यालय में चार वर्षीय कोर्स को लेकर जो घमासान हुआ है, उसमें सही-गलत का फैसला करना मुश्किल है। इसकी वजह यह है कि शिक्षा के क्षेत्र में इतनी अराजकता और राजनीति व्याप्त हो गई है कि जो कुछ सही परंपराएं कभी पड़ी होंगी, वे खत्म हो गई हैं, इसलिए सारे मुद्दों का हल राजनीतिक सुविधापरस्ती और निहित स्वार्थों के आधार पर ही तय होता है। शिक्षा मंत्रालय यह कह रहा है कि वह दिल्ली विश्वविद्यालय और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के बीच कुछ नहीं बोलेगा। यूजीसी ने दिल्ली विश्वविद्यालय को चार वर्षीय डिग्री कोर्स खत्म करने का आदेश दिया था। शिक्षा मंत्रालय यह जताने की कोशिश कर रहा है कि यूजीसी ने अपनी स्वायत्त समझ के आधार पर यह कोर्स खत्म करने का फैसला किया है, जबकि यह वास्तविकता सभी जानते हैं कि यूजीसी ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय की इच्छा से यह आदेश जारी किया है। भारतीय जनता पार्टी ने यह वादा किया था कि अगर उसकी सरकार बनेगी, तो चार वर्षीय डिग्री कोर्स को फिर से पहले की तरह तीन वर्षीय कर दिया जाएगा, इसीलिए भाजपा की सरकार बनते ही यूजीसी ने यह आदेश जारी कर दिया।

अगर यूजीसी इस कोर्स के खिलाफ था, तो उसे पिछले साल ही ऐसा करना था, जब भारी विवादों के बीच दिल्ली विश्वविद्यालय ने यह फैसला किया था। सिद्धांतत: यूजीसी को यह आदेश नहीं देना चाहिए था, क्योंकि यह दिल्ली विश्वविद्यालय की स्वायत्तता का उल्लंघन है। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रशासन और अकादमिक काउंसिल को ही यह तय करने का अधिकार है कि विश्वविद्यालय में कैसे पढ़ाई होगी। इस मामले में दिल्ली विश्वविद्यालय ने जो प्रतिरोध किया, वह ठीक है। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि पिछले साल छात्रों और शिक्षकों के भारी विरोध के बावजूद चार वर्षीय डिग्री कोर्स शुरू किया गया था। शिक्षक और छात्र संगठन अब तक इसका विरोध करते आ रहे हैं और इनमें वामपंथी और दक्षिणपंथी, दोनों संगठन शामिल हैं, इसीलिए भाजपा ने तीन वर्षीय पाठ्यक्रम को फिर से लागू करने का चुनावी वादा किया था। अगर तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल की पहल पर चार वर्षीय कोर्स को लागू करना राजनीतिक हस्तक्षेप था, तो राजग सरकार के आते ही इसे खत्म करने का फैसला राजनीतिक दखलंदाजी का ज्यादा सीधा उदाहरण है, क्योंकि इस बार दिखाने के लिए भी किसी प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया।

सवाल फैसले के सही-गलत होने का नहीं है, सवाल शैक्षिक स्वायत्तता और सही प्रक्रिया के पालन का है। इससे यह समझ में आता है कि भारत में शिक्षा में सुधार क्यों नामुमकिन होते रहे हैं। हर समूह अपनी हर सही-गलत मांग मनवाने के लिए राजनीति करता है और ऐसे में शैक्षणिक मुद्दे पीछे छूट जाते हैं। उच्च शिक्षा में सुधार के लिए जरूरी है कि यूजीसी, एमसीआई और एआईसीटीई जैसी संस्थाओं में व्यापक सुधार हों। ये तमाम संस्थाएं राजनीति और भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों में हमेशा घिरी रहती हैं और इसलिए इनसे उच्च शिक्षा की बेहतरी की उम्मीद करना बेकार है। जरूरी है कि इनमें प्रतिष्ठित शिक्षाविद् ही हों , इन्हें पूरी स्वायत्तता मिले। इसके बाद इनकी देखरेख में विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता और जवाबदेही से कामकाज चलाना सिखाया जाए। हमारे ज्यादातर विश्वविद्यालय डिग्रियां बांटने के कारखाने बन गए हैं। इनका बुनियादी इलाज जरूरी है। दिल्ली विश्वविद्यालय उन कुछ विश्वविद्यालयों में से है, जिनकी कुछ प्रतिष्ठा अब भी बची हुई है, पर इस प्रकरण से उसकी प्रतिष्ठा पर आंच आई है।

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