फोटो गैलरी

Hindi Newsनिजीकरण का डर

निजीकरण का डर

देश के कोयला मजदूरों ने अपनी पांच दिवसीय हड़ताल शुरू कर दी है। अगर हड़ताली मजदूरों की तादाद व हड़ताल के असर को देखें,  तो शायद पिछले तीन-चार दशक से इतनी बड़ी हड़ताल भारत में नहीं हुई है। कोल...

निजीकरण का डर
लाइव हिन्दुस्तान टीमTue, 06 Jan 2015 07:51 PM
ऐप पर पढ़ें

देश के कोयला मजदूरों ने अपनी पांच दिवसीय हड़ताल शुरू कर दी है। अगर हड़ताली मजदूरों की तादाद व हड़ताल के असर को देखें,  तो शायद पिछले तीन-चार दशक से इतनी बड़ी हड़ताल भारत में नहीं हुई है। कोल इंडिया के कर्मचारियों की ही तादाद करीब साढ़े तीन लाख है। अन्य मजदूरों या कर्मचारियों को जोड़ लेने से यह संख्या लगभग दोगुनी हो जाती है। कोयला मजदूरों की हड़ताल का सबसे बड़ा असर बिजली उत्पादन पर पड़ सकता है। देश का लगभग 60 प्रतिशत बिजली उत्पादन कोयले से होता है और करीब 80  प्रतिशत कोयला सरकारी उद्यम कोल इंडिया लिमिटेड करता है। ऐसे में,  बिजली का संकट गंभीर हो सकता है,  क्योंकि देश के बड़े हिस्से में भारी सर्दी की वजह से बिजली की मांग बढ़ी हुई है और इसकी कमी पहले से ही कई इलाकों में है। इस हड़ताल की वजह से रोजाना लगभग 15 लाख टन कोयले का उत्पादन प्रभावित होगा।

वित्त वर्ष की आखिरी चौथाई में आम तौर पर ज्यादा उत्पादन होता है,  इस वजह से उत्पादन का नुकसान ज्यादा होगा। इन बातों को मद्देनजर रखकर ही इस वक्त हड़ताल की गई है,  ताकि सरकार पर दबाव बनाया जा सके। इस वक्त कोयला मजदूरों की हड़ताल की वजह यह है कि कोयला उद्योग का पुनर्गठन होना लगभग तय है। इसकी दो वजहें हैं। पहली,  भारत में बिजली का उत्पादन बढ़ाना जरूरी हो गया है। बिजली की कमी पहले ही औद्योगिक,  कृषि व घरेलू क्षेत्र में महसूस की जा रही है। बिजली का उत्पादन व उपलब्धता बढ़ाने के लिए कोयले का उत्पादन बढ़ाना जरूरी है। ऐसे में, जो यथास्थिति है,  उसे बनाए नहीं रखा जा सकता। माना जा रहा है कि कोयले का उत्पादन बढ़ाने के लिए कोयला उद्योग का निजीकरण व कोल इंडिया का पुनर्गठन करना होगा।

मजदूर संगठन इन्हीं बातों का विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि इससे मजदूरों के हित प्रभावित होंगे। दूसरी बड़ी वजह कोयला घोटाला है,  जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने निजी खदानों का लाइसेंस रद्द कर दिया है। जब नरसिंह राव की सरकार ने अर्थव्यवस्था का उदारीकरण किया था,  तब भी कोयला उत्पादन को बढ़ाने की चुनौती थी। कोयला उद्योग के राष्ट्रीयकरण को रद्द करना इतना बड़ा काम था कि इससे बचने के लिए सरकार ने उद्योगों को अपने उपयोग के लिए खदान आवंटित करने का रास्ता अपनाया,  ताकि बिजली,  इस्पात व ऐसे अन्य उद्योग अपने लिए कोयले का उत्पादन कर सकें,  जो कोयले पर निर्भर थे। यह तदर्थ नीति थी,  पर वह अब तक जारी रही। अर्थव्यवस्था की तरक्की के साथ कोयले की मांग और कीमत बढ़ती रही। ऐसे में,  कोयला खदान आवंटन फायदे का धंधा बन गया। इसमें मनमानी भी होती रही।

अंतत:  यह दुष्चक्र टूटा,  पर इससे अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान हुआ। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले का फायदा यह हुआ कि सुधार होना अनिवार्य हो गया। कोयला उद्योग की बदहाली की वजह से ही विशाल भंडार के बावजूद भारत को इसे आयात करना पड़ता है। दुनिया में खनन की नई तकनीकें आ गई हैं,  जिनसे जमीन व पर्यावरण को कम नुकसान होता है,  पर भारत में पुरानी तकनीकें अपनाई जा रही हैं। इन समस्याओं के हल के लिए निजी क्षेत्र को इसमें लाना जरूरी है। पर मजदूरों की अपनी आशंकाएं हैं। यह समस्या इसीलिए है,  क्योंकि राजनीतिक स्वार्थों के चलते कोयला उद्योग में सुधार नहीं लागू किए गए। स्थिति इतनी गंभीर है कि सुधारना मुश्किल हो रहा है। जाहिर है, पुराने जमाने में लौटना मुमकिन नहीं,  लेकिन संवाद व पारदर्शिता के जरिये सभी पक्षों में सहमति व विश्वास बहाल करना जरूरी है और यह साबित करना भी कि सबके हित एक साथ हैं, परस्पर विरोधी नहीं।

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें
अगला लेख पढ़ें