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बचपन में संगीत के लिए छोड़ा घर

मेरा जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ- पिता महाशय मेहर सिंह और मां चंद्रकांता। एक बड़ा भाई, एक छोटी बहन। कुल मिलाकर पांच लोगों का परिवार। पिताजी ज्योतिषाचार्य थे, कर्मकांड वगैरह के अच्छे जानकार। मेरी...

बचपन में संगीत के लिए छोड़ा घर
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 04 Jul 2015 09:58 PM
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मेरा जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ- पिता महाशय मेहर सिंह और मां चंद्रकांता। एक बड़ा भाई, एक छोटी बहन। कुल मिलाकर पांच लोगों का परिवार। पिताजी ज्योतिषाचार्य थे, कर्मकांड वगैरह के अच्छे जानकार। मेरी मां एक घरेलू महिला थीं। मेरा जन्म यों तो मेरठ के पास हुआ था, लेकिन जब मैं तीन-चार साल का था, तभी हम लोग दिल्ली आ गए। दिल्ली के मयूर विहार में हमारी रिहाइश थी। पिताजी यजमानी करके परिवार की जरूरतों को पूरा करते थे। लोगों के घरों में पूजा-पाठ करा दिया, कभी कोई अन्य धार्मिक संस्कार करा दिए। यूं तो हमारा परिवार साधारण था, मगर पिताजी की समाज में बड़ी प्रतिष्ठा थी। लोग उन्हें विद्वान मानते थे और बहुत इज्जत देते थे। उनके सम्मान का सीधा मतलब यह था कि हम भाई-बहनों पर हमेशा अच्छे आचरण का बहुत दबाव रहता था। सब लोग मानते थे कि महाशय मेहर सिंह जी के बच्चे हैं, तो संस्कारी ही होंगे।
जब हम भाई-बहन छोटे थे, तब पिताजी कभी-कभी इकतारा, तो कभी हारमोनियम बजाकर गाया करते थे। ब्राह्मण परिवार में मूल मंत्रों का उच्चारण तो वैसे भी होता ही है, लेकिन पिताजी उसे संगीत में सजाकर गाते थे। कभी चंद्रग्रहण-सूर्यग्रहण के समय के मंत्र, तो कभी कोई हवन, सब कुछ संगीतमय होता था। मुझे याद है कि बचपन में हमारे यहां आरती भी अलग तरह से गाई जाती थी। इसी माहौल में मेरे भीतर संगीत से लगाव हो गया। लगाव भी ऐसा-वैसा नहीं, बिल्कुल संगीत की साधना वाला।
जाहिर है, शुरुआती वर्षों में इस लगाव के फायदे कम और नुकसान ज्यादा हुए। बहुत ताने सुनने पड़ते थे। यह वह दौर था, जब आपके घर आने वाला हर दूसरा मेहमान एक सवाल जरूर पूछता कि बेटे बड़े होकर क्या बनोगे? मेरे मुंह से निकलना ही था- संगीतकार, और मेहमानों के चेहरे देखने लायक होते थे। ऐसा लगता, जैसे मैंने उनके साथ कोई बदतमीजी कर दी हो। संगीत को उन दिनों बहुत हल्के में लिया भी जाता था। ऐसे में, जब मैंने संगीतकार बनने की बात खुलेआम कह दी, तो बड़ी अवहेलना झेलनी पड़ी। थोड़ी सीधी भाषा में कहूं, तो खूब डांट पड़ी, मार भी पड़ी। लेकिन तब तक मन संगीत में रम चुका था, उल्टे-सीधे व्यवहार और तानों की आदत-सी पड़ गई थी। कोई अच्छी तरह बात कर ले, तो शक होता था कि यह कैसे हो गया, और मन ही मन लगता कि थोड़ी ही देर में बेइज्जती होने वाली है।
पिताजी मेरी मनोदशा को काफी हद तक समझते थे। वह यह मानते भी थे कि संगीत सीखना कोई बुरी बात नहीं है। लेकिन रिश्तेदार और पड़ोसियों की टिप्पणियों का असर उनके ऊपर भी पड़ता, अब किसी को भी यह सुनना कहां अच्छा लगेगा कि बेटा आवारा निकल गया! इसलिए वह अपनी तरफ से कोई बहुत बढ़ावा नहीं दिया करते। इसी माहौल में पढ़ाई और संगीत का लगाव साथ-साथ चलता रहा। संगीत की वजह से मेरे मन में संवेदना व करुणा भी बढ़ती चली गई। संवेदना और करुणा बढ़ने के साथ-साथ मन कलात्मक होता चला गया, मस्तिष्क में तरह-तरह की रचनात्मकता का सृजन होता चला गया। शोर मचाकर नहीं कह सकता था, लेकिन मन ही मन संगीत से जुड़े रहने, उसकी साधना करने का मैंने फैसला कर लिया था। उस समय संगीत सीखना भी इतना आसान काम नहीं था। संगीत सिखाने वाले जो निजी संस्थान थे, वहां अमीरों के बच्चे ही ज्यादा आते थे। नामी-गिरामी गुरुओं के पास तब जगह मिलती थी, जब आप खुद किसी घराने से जुड़े हुए हों।
फिर एक दिन मैंने तय किया कि मैं संगीत सीखूंगा, और अपनी तरह से सीखूंगा। मैंने तय किया कि मैं घर छोड़ दूंगा। जैसे ही मैंने अपनी इस इच्छा के बारे में सबको बताया, घर में कोहराम मच गया। पहले तो मुझे यह समझाने की कोशिश की गई कि संगीत में कुछ  नहीं रखा है, पढ़-लिखकर नौकरी करो। फिर समझाया गया कि अगर नौकरी नहीं कर सकते हो, तो कुछ 'बिजनेस' ही कर लो। जब मैं इसके लिए भी तैयार नहीं हुआ, तो दूसरी बहस शुरू हुई। फिर सबका यह कहना था कि संगीत ही सीखना है, तो यहीं रहकर सीखो। कहीं बाहर जाने की क्या जरूरत है? लेकिन तब तक मेरे मन में यह बात पैठ गई थी कि अच्छा सुनना भी परमात्मा की कृपा के बिना संभव नहीं है। अगर परमात्मा की यह कृपा मेरे ऊपर है, तो मैं उसके साथ न्याय करूंगा। इसीलिए मेरे लिए अब घर में रहकर संगीत की साधना करना मुमकिन नहीं था, मुझे एकांत चाहिए था। तमाम बहस के बाद भी 13 साल की उम्र में मैं अपने एकांतवाद की खोज में निकल गया। तब से लेकर आज तक घूम ही रहा हूं, अथार्त घुमक्कड़ जिज्ञासु।

(जारी)

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