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बदलती हुई दुनिया में बच्चों की किताबें

पिछले दिनों साहित्य अकादमी ने दुनिया भर के कुछ बाल साहित्यकारों को अपने यहां आमंत्रित किया। वहीं इजरायल के मशहूर बाल साहित्यकार या अपने को बच्चों का कंटेंट डेवलपर कहने वाले मोट्टी मारडेहाई अविराम से...

बदलती हुई दुनिया में बच्चों की किताबें
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 23 Aug 2015 11:30 PM
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पिछले दिनों साहित्य अकादमी ने दुनिया भर के कुछ बाल साहित्यकारों को अपने यहां आमंत्रित किया। वहीं इजरायल के मशहूर बाल साहित्यकार या अपने को बच्चों का कंटेंट डेवलपर कहने वाले मोट्टी मारडेहाई अविराम से मुलाकात हुई। मोट्टी वर्षों से बच्चों के लिए न केवल लिख रहे हैं, बल्कि तरह-तरह के कॉमेडी शो भी करते हैं।

उन्होंने अपनी लिखी हुई तरह-तरह की किताबें भी दिखाईं। इन किताबों का आकार, प्रकार, छपाई, कथ्य, सब कुछ हमारे यहां लिखी जाने वाली बच्चों की किताबों से बहुत अलग था। मोट्टी ने इन किताबों को तैयार करने का जो तरीका बताया, उसे हम भारतीय लेखक अपनी स्वायत्तता व स्वतंत्रता आदि की बातें करके चाहे खारिज कर दें, मगर निश्चय ही किताबों को विकसित करने का न केवल वह मनोरंजक तरीका था, बल्कि सफल व्यावसायिक उपाय भी।

मोट्टी ने बताया कि इजरायल में सिर्फ किताबें इसीलिए नहीं लिखी जा सकतीं कि उनको लिखना है। वहां उनका बिकना यानी बच्चों की पसंद बहुत जरूरी है। एक किताब में वह ताकत होनी चाहिए कि वह इशारे से बच्चे को अपने पास बुला सके। कोई भी प्रकाशक या कंपनी किताब को तभी छापती है, जब वह फायदे का सौदा हो। इजरायल में हमारे यहां की तरह नेशनल बुक ट्रस्ट, प्रकाशन विभाग, एनसीईआरटी या साहित्य अकादमी नहीं हैं, जो बच्चों के लिए किताबें छापती हों।

यह पूछे जाने पर कि ऐसा क्यों नहीं है, दूतावास की एक अधिकारी ने साफ शब्दों में कहा कि क्योंकि इजरायल एक पूंजीवादी देश है। खैर, बच्चों के लिए किताब छपे, इसके लिए काफी मेहनत करनी पड़ती है। जिस कंपनी या प्रकाशक के पास आप अपना आइडिया लेकर गए हैं, उसके अधिकारी, मनोवैज्ञानिक, समाजशास्त्री आदि बैठते हैं। वे कथ्य के अलावा, ले आउट, डिजाइन आदि पर तो बात करते ही हैं,  उसमें अधिक से अधिक नया क्या होगा, जो बच्चों को अपनी तरफ आकर्षित कर सके, इस पर भी बहस होती है, विमर्श होता है। फिर जो किताब तैयार होती है, वह किताब से अधिक खिलौना नजर आती है। मोट्टी का कहना था, वह हर वक्त नए आइडिया की तलाश में रहते हैं। इसके लिए हर रोज दो से तीन घंटे गूगल सर्च करते हैं।

उन्होंने यह भी बताया कि जरूरी नहीं कि कंपनियों को उनके आइडिया हमेशा पसंद आते हों। एक बार फ्रांस के एक प्रकाशक ने उनसे कहा कि मुझे तुम्हारी किताबें जरा भी पसंद नहीं हैं। वे बेहद लाउड होती हैं। किताबें कुछ शर्मीली होनी चाहिए। हम भारत के लेखकों से कोई ऐसा कह दे, तो हमारा आत्मविश्वास ही खत्म हो जाएगा। हमारे यहां लेखक शायद ही इस बात को स्वीकार कर पाएंगे कि कोई उन्हें यह बताए कि क्या लिखना है, यहां तक कि पाठक भी। दिलचस्प बात यह भी है कि उसी इजरायल में इंटरनेट व मोबाइल के कारण बाल-पत्रिकाएं दम तोड़ रही हैं।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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