शिक्षा की तकनीक बदलने का समय
यह बदलाव की उम्मीद का वक्त है। तकनीकी शिक्षा में परिवर्तनों की सिफारिशों के साथ एम के काव की अध्यक्षता वाली अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद, यानी एआईसीटीई समीक्षा कमेटी ने अपनी रिपोर्ट मानव संसाधन...
यह बदलाव की उम्मीद का वक्त है। तकनीकी शिक्षा में परिवर्तनों की सिफारिशों के साथ एम के काव की अध्यक्षता वाली अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद, यानी एआईसीटीई समीक्षा कमेटी ने अपनी रिपोर्ट मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी को सौंप दी है। मई, 2014 में एनडीए सरकार के गठन के बाद उच्च शिक्षा की समस्याओं का हल ढूंढ़ने के लिए दो समितियां बनाई गई थीं। इनमें एम के काव कमेटी के अलावा, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, यानी यूजीसी की समीक्षा के लिए गठित डॉ हरि गौतम कमेटी भी थी। दोनों कमेटियों को यह अध्ययन करना था कि भविष्य में इन दो संस्थाओं का कामकाज कैसे चलेगा? इन्हें इनके मौजूदा स्वरूप में ही बनाए रखा जाए या इनमें कोई ढांचागत परिवर्तन किया जाए? कुछ लोग पश्चिमी देशों का हवाला देते हुए नियामक संस्थाओं को खत्म कर समूची उच्च शिक्षा को बाजार की शक्तियों के हवाले कर देने की बात करते हैं, लेकिन शायद भारत में अभी यह संभव नहीं है।
वैसे तो उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक दर्जन नियामक संस्थाएं काम करती हैं, पर इनमें यूजीसी और एआईसीटीई का विशेष महत्व है, क्योंकि उच्च शिक्षा पाने वाले अधिकांश विद्यार्थी इनके दायरे में आते हैं। एआईसीटीई की स्थापना 30 नवंबर, 1945 को देश में तकनीकी शिक्षा के विस्तार के लिए एक नोडल संस्था के रूप में की गई थी, जिसे 1987 में संसद द्वारा पारित विधेयक के जरिये एक वैधानिक संस्था का स्वरूप प्रदान कर दिया गया। एआईसीटीई एक्ट, 1987 के अंतर्गत पूरे देश में इंजीनिर्यंरग, मैनेजमेंट, आर्किटेक्चर, टाउन प्लानिंग, होटल प्रबंधन और एप्लाइड आर्ट से संबंधित पाठ्यक्रमों के विकास की जिम्मेदारी एआईसीटीई को दी गई थी। देश में तकनीकी शिक्षा का विस्तार काफी तेजी से हुआ है, 1947 में देश में कुल 43 तकनीकी संस्थाएं थीं, जिनकी संख्या अब बढ़कर 10,500 हो गई है।
इन 10,500 संस्थाओं में 14,000 से अधिक कोर्सों के तहत 39 लाख विद्यार्थी पढ़ रहे हैं। वर्ष 1995 तक अधिकांश इंजीनिर्यंरग व मैनेजमेंट कॉलेज महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु एवं आंध्र प्रदेश में थे। हर वर्ष मई-जून के महीनों में दिल्ली से दक्षिण भारत जाने वाली ट्रेनें बीटेक और एमबीए में प्रवेश पाने के इच्छुक विद्यार्थियों व उनके अभिभावकों से ठसाठस भरी रहती थीं। उन दिनों बीटेक व एमबीए की उपलब्ध सीटों की तुलना में मांग ज्यादा थी, इसलिए अनेक प्राइवेट कॉलेजों में कैपीटेशन फीस का चलन भी था।
तकनीकी शिक्षा के विस्तार और वर्ष 2008 के बाद उसकी लोकप्रियता में आने वाली गिरावट को अंतरराष्ट्रीय मंदी के भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभाव के रूप में देखा जाना चाहिए। साल 1992 से 2008 तक की अवधि में भारतीय अर्थव्यवस्था उदारीकरण की नीतियों पर चलने के फलस्वरूप आर्थिक विकास की तेज रफ्तार पर चल रही थी। आईटी सेक्टर की इन्फोसिस, विप्रो, टीसीएस, एचसीएल जैसी कंपनियां विश्व बाजार पर कब्जा करने के लिए धड़ाधड़ कैंपस प्लेसमेंट कर रही थीं। इस दौर में एआईसीटीई केंद्र व राज्य स्तर के अनेक राजनेताओं, उद्योगपतियों, लद्यु उद्यमियों और रिटायर्ड नौकरशाहों के लिए फटाफट धन कमाने का अलादीन का चिराग जैसा बन गई थी। एआईसीटीई सीधे मानव-संसाधन मंत्रालय के अधीन थी, इसलिए इसके संचालन में राजनीतिक हस्तक्षेप दिनोंदिन बढ़ता गया। अंततोगत्वा यह वैधानिक संस्था भ्रष्टाचार, अनियमितताओं और तरह-तरह की गड़बड़ियों का अड्डा बन गई, जिससे इस राष्ट्रीय संस्था की छवि निरंतर गिरती गई, और फिर आगे जाकर सीबीआई को कई अधिकारियों पर मुकदमे तक दायर करने पड़े।
एआईसीटीई समीक्षा कमेटी ने विगत सात-आठ महीनों में पिछली तमाम रिपोर्टों का अध्ययन करने और राष्ट्रीय स्तर पर तकनीकी शिक्षा से जुड़े हुए विशिष्ट व्यक्तियों से मिलने के बाद जो रिपोर्ट मानव संसाधन मंत्रालय को सौंपी है, उसमें अनेक सिफारिशें ऐसी हैं, जिनको यदि ईमानदारी से लागू किया जाए, तो तकनीकी शिक्षा की कायापलट हो सकती है। इनमें सबसे प्रमुख सिफारिश है एआईसीटीई को पूरी तरह स्वायत्त संवैधानिक दर्जा देना, ठीक वैसे ही जैसे कि चुनाव आयोग, सेबी, ट्राई, वगैरह को मिला हुआ है। एआईसीटीई को मानव संसाधन मंत्रालय के शिकंजे से मुक्त करने से निश्चित रूप से यह संस्था निष्पक्षता से काम कर पाएगी और राजनीतिक हस्तक्षेप से बच सकेगी।
इस संस्था पर इंस्पेक्टर राज चलाने और भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं, इसलिए एम के काव कमेटी ने यह भी सिफारिश की है कि इस स्वायत्तशासी संस्था को भविष्य में तकनीकी संस्थाओं में मार्गदर्शन, गुणवत्ता सुधार और विकास पर अधिक ध्यान देना चाहिए, न कि लाइसेंसिंग से जुड़े कार्यों पर। कमेटी का कहना है कि अगले 10 साल में एआईसीटीई से मान्यता प्राप्त सभी तकनीकी संस्थाओं को स्वायत्त (ऑटोनोमस) बनाकर विश्वविद्यालयों की संबद्धता के शिकंजे से मुक्त करना चाहिए, जिसके लिए इस कमेटी ने रेटिंग और एक्रीडिएशन की पद्धतियों को अपनाने का सुझाव दिया है। अभी तक इस संस्था में यह काम नेशनल एक्रीडिएशन बोर्ड, यानी एनबीए करता था, जिसे अब एक अलग निकाय बना दिया गया है। काव कमेटी ने रेटिंग और एक्रीडिएशन की एक की बजाय, अनेक संस्थाएं स्थापित करने का भी सुझाव दिया है।
एआईसीटीई की इस बात के लिए भी आलोचना होती रही है कि इसका लचर सांगठनिक ढांचा 10,500 से अधिक संस्थाओं की 21वीं सदी से जुड़ी जरूरतों को पूरा करने मे असफल रहा है। काव कमेटी ने यह सुझाव दिया है कि कर्मचारियों की भर्ती वर्तमान में चल रही डेपुटेशन प्रथा को समाप्त कर स्थायी आधार पर की जाए। एआईसीटीई को प्रति वर्ष मानव संसाधन मंत्रालय से मिलने वाले 200 करोड़ रुपये के अनुदान को कमेटी ने पूरी तरह से अपर्याप्त बताते हुए प्रति वर्ष 5,000 करोड़ रुपये के अनुदान की सिफारिश की है। इस संस्था के चेयरमैन की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम बनाने की राय भी दी गई है।
तकनीकी और उच्च शिक्षा पर पिछले दशकों में अनेक कमेटियां बैठाई गई हैं, जिनमें यशपाल कमेटी, सैम पित्रोदा कमेटी, अंबानी-बिड़ला कमेटी, यूआर राव कमेटी, धरनी सिन्हा कमेटी, ईश्वर दयाल कमेटी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। दुर्भाग्य यह है कि उच्च शिक्षा पर चिंतन-मनन में हम जितने आगे रहे हैं, उसको अमली जामा पहनाने में उतने ही पीछे हैं। इन सभी कमेटियों की सिफारिशों पर क्या कार्रवाई हुई, उसकी बहुत कम जानकारी सार्वजनिक हो पाई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार ने मेक इन इंडिया, स्किलिंग इंडिया, डिजिटल ट्रांसफॉर्मेशन और न्यूनतम शासन-अधिकतम सुशासन, जैसी अनेक महत्वाकांक्षी नीतियां घोषित की हैं। युवाओं को भरोसा दिया गया है कि मेक इन इंडिया के माध्यम से प्रति वर्ष एक करोड़ नई नौकरियां पैदा की जाएंगी। इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए उद्योगों को सुशिक्षित तकनीकी और प्रबंधकीय जन-शक्ति की जरूरत होगी। एआईसीटीई की कायापलट के बिना यह संभव नहीं होगा। एम के काव कमेटी की सिफारिशों पर राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा और प्रभावी क्रियान्वयन की जरूरत है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)