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सांस्कृतिक कूटनीति का सच

जब कोई घटना पहली बार घटे, तो उसे इत्तफाक कहते हैं, लेकिन दूसरी बार भी उसी तरह की घटना को इत्तफाक नहीं कहा जाता। मंगलवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को फोन...

सांस्कृतिक कूटनीति का सच
लाइव हिन्दुस्तान टीमThu, 18 Jun 2015 11:54 PM
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जब कोई घटना पहली बार घटे, तो उसे इत्तफाक कहते हैं, लेकिन दूसरी बार भी उसी तरह की घटना को इत्तफाक नहीं कहा जाता। मंगलवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को फोन कॉल किए जाने को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इससे पहले 13 फरवरी, 2015 को प्रधानमंत्री मोदी ने आईसीसी क्रिकेट वल्र्ड कप में पाकिस्तानी टीम को शुभकामना संदेश देने के लिए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से टेलीफोन पर बातचीत की थी। तब उन्होंने अफगानिस्तान, श्रीलंका के राष्ट्रपति व बांग्लादेश की प्रधानमंत्री को भी शुभकामना संदेश देने के लिए टेलीफोन किया था। तब मोदी ने ट्वीट किया कि ‘राष्ट्रपति अशरफ गनी, प्रधानमंत्री शेख हसीना, प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और राष्ट्रपति श्रीसेना से बात हुई। क्रिकेट वल्र्ड कप के लिए उन्हें मैंने अपनी शुभकामनाएं दीं।’ बातचीत के बाद यह बताया गया कि हमारे विदेश सचिव एस जयशंकर जल्द ही संबंधों को और मजबूती प्रदान करने के लिए दक्षेस के दौरे पर जाएंगे। लेकिन तब इस तरह की खबर भी आई कि नवाज शरीफ की बातचीत पहले अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से हुई थी, फिर अगले दिन भारतीय प्रधानमंत्री से। शरीफ-ओबामा बातचीत में भारत-पाकिस्तान संबंध ही सबसे प्रमुख मुद्दा था। वैसे, यह जानकारी नहीं है कि क्या नवाज शरीफ को फोन करने से पहले बराक ओबामा ने नरेंद्र मोदी से बातचीत की थी या नहीं?

इस बार खबर यह है कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा नवाज शरीफ को रमजान के महीने की मुबारकबाद देने के कुछ देर बाद अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन केरी ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री से फोन पर बात की। इस बातचीत में केरी ने भारत और पाकिस्तान के बीच बढ़े हाल के तनाव पर भारी चिंता जताई है। यानी इस साल दो बार अमेरिका ने भारत-पाक रिश्तों में जमी बर्फ को कुछ हद तक पिघलाने की कवायद की। प्रधानमंत्री मोदी की इस्लामाबाद फोनकॉल को इसी नजर से देखा जा सकता है।
कूटनीतिक मोर्चे पर इस फोन कॉल को यूं रंग दिया गया कि रमजान के महीने की शुभकामनाएं देने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नवाज शरीफ से बात की और इस मौके पर भारतीय जेलों में बंद कई पाकिस्तानी मछुआरों की रिहाई के आदेश जारी किए गए हैं। क्रिकेट कूटनीति की तरह, यह भी सांस्कृतिक कूटनीति है। बांग्लादेश में इस कूटनीति ने अभी सफलता पाई है। लेकिन दोनों देशों के कूटनीतिक स्रोत बताते हैं कि अगले महीने रूस में शंघाई कॉपरेशन ऑर्गेनाइजेशन की शिखर बैठक के दौरान मोदी-शरीफ की अलग से मुलाकात का रास्ता निकाला जा रहा है। हालांकि, इससे उस सोच को ही बल मिलेगा, जो कहती है कि भारत की विदेश नीति, खासकर पाकिस्तान-नीति पेनसिल्वेनिया एवेन्यू (जहां व्हाइट हाउस है) और फॉगी बॉटम (जहां अमेरिकी विदेश विभाग है) में निर्धारित होती है। इससे भारतीय विदेश नीति की संप्रभुता पर भी सवाल उठ सकते हैं। वैसे, यहीं पर सवाल यह भी उठता है कि क्या दुनिया के करीब 120 ईसाई देशों को हमारे प्रधानमंत्री क्रिसमस का बधाई संदेश देते हैं या नेपाल को नवरात्र की शुभकामना दी जाती है?

वैसे, ताजा घटनाक्रम से दुनिया में संदेश जाता है कि अमेरिका और भारत के संबंध गहरे हो चले हैं। जाहिर है, यह स्थिति भारत को फायदा पहुंचाती है, अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय, दोनों स्तरों पर। इसके आर्थिक व सामरिक के साथ-साथ कूटनीतिक फायदे भी हैं। लेकिन दो समस्याएं भी हैं। पहली, जहां एशियाई मोर्चे पर अमेरिका व भारत के हित मिलते हैं, वहीं पाकिस्तान के मामले में दोनों के हितों में अंतर है। अमेरिका का झुकाव शुरू से पाकिस्तान के साथ रहा है। यह स्थिति हमारे लिए सहज नहीं है। ऐसे में, हमें अमेरिका के सामने अपने हित परिभाषित करने होंगे। दूसरी, यह ठीक है कि हाल के वर्षों में हमारा अमेरिका से साथ अच्छा बन रहा है, पर इस कारण हमारे परंपरागत सहयोगी देश, जैसे रूस हमसे दूर जा रहा है। नतीजा यह है कि जहां एक तरफ अभी तक अमेरिका हमारा भरोसेमंद साझेदार नहीं बन पाया है, वहीं दूसरी तरफ, पाकिस्तान और रूस की नजदीकी बढ़ रही है। इससे विदेश नीति में बुनियादी ढांचागत समस्याएं आ रही हैं, क्योंकि पाकिस्तान के प्रति अमेरिका का रवैया हमेशा से नरम रहा है, चीन भी पाकिस्तान के साथ है और अब रूस उसके नजदीक जा रहा है। जहां तक ब्रिटेन का प्रश्न है, तो वहां हाल के समय में जिस तरह फिर से खालिस्तान आंदोलन ने जोर पकड़ा है, उसकी भूमिका ‘शैतान’ जैसी बन रही है।

ताजा हालात में पाकिस्तान भारत से निकटता का हिमायती नहीं है, क्योंकि एक तो उसकी राष्ट्रीय नीति में नवाज शरीफ (नागरिक सरकार) का अमल-दखल नहीं है। वह इस्लामाबाद की परिधि में ही सीमित हैं और फौज ही विदेश नीति बना रही है। दूसरा, अफगानिस्तान में अशरफ गनी के आने के बाद पाकिस्तान को लगता है कि उसने अफगान मामले को काफी हद तक सुलझा लिया है। तीसरा, जहां पहले अपनी अर्थव्यवस्था सुधारने के लिए पाकिस्तान भारत से नजदीकी रिश्ता चाहता था, वहीं अब उसे चीन व अमेरिका से आर्थिक मदद मिलते रहने की उम्मीद है। चौथा, पाकिस्तान के ऊपर से अंतरराष्ट्रीय दबाव हटता जा रहा है। पश्चिम व यूरोप के देशों का ध्यान अब पश्चिम एशिया पर है। ऊपर से, जॉन केरी जब यह कहते हैं कि आतंकवाद के मोर्चे पर शरीफ अच्छा काम कर रहे हैं, तो एक तरह से वह पाकिस्तान की यथास्थिति पर मुहर लगाते हैं।

अब जिस शंघाई कॉपरेशन ऑर्गेनाइजेशन की ओर उम्मीद से देखा जा रहा है, उसमें भी भारत और पाकिस्तान की स्थिति को आंकना आवश्यक है। यह मुमकिन है कि इस क्षेत्रीय बैठक से पहले भारत रिश्ते में सुधार चाहता हो। लेकिन शंघाई कॉपरेशन ऑर्गेनाइजेशन सार्क जैसा नहीं है। जब दक्षेस, यानी सार्क के बारे में सोचा गया था, तब उसके चार-पांच सदस्य देशों ने सोचा था कि एक साथ मिलकर भारत जैसे बड़े देश पर दबाव बनाएंगे। उस समय नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका से हमारे रिश्ते अच्छे नहीं थे, पाकिस्तान के साथ तो खराब थे ही। मगर अब पाकिस्तान को छोड़कर सभी सदस्य देश भारत के करीब-करीब साथ हैं। वहीं, शंघाई कॉपरेशन ऑर्गेनाइजेशन में भारत, पाकिस्तान की तरह स्थायी सदस्य की बजाय पर्यवेक्षक देश की भूमिका रखता है। रूस, चीन और मध्य एशिया के गणराज्य वाले इस समूह का सच यही है कि रूस से हमारे पहले जैसे निकटतम संबंध नहीं हैं। चीन और भारत के कई हित साझा तो हैं, पर वह पाकिस्तान को वरीयता देता है। ऐसे में, इस संगठन से हमें कुछ हासिल होने वाला नहीं है। इसलिए हमें अपनी विदेश नीति, विशेषकर पाकिस्तान-नीति में स्थिरता लानी होगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 

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