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बुजुर्गों से दुर्व्यवहार का जिम्मेदार कौन

परिवार में बुजुर्गों से दुव्र्यवहार के हाल ही में सामने आए आंकड़े दिल दुखाते हैं। लेकिन, सामाजिक प्रवृत्तियों पर करीब से निगाह रखने वालों को वे चौंकाते बिल्कुल नहीं। बहू-बेटे, भारतीय परंपरा के ह्रास...

बुजुर्गों से दुर्व्यवहार का जिम्मेदार कौन
लाइव हिन्दुस्तान टीमThu, 18 Jun 2015 11:53 PM
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परिवार में बुजुर्गों से दुव्र्यवहार के हाल ही में सामने आए आंकड़े दिल दुखाते हैं। लेकिन, सामाजिक प्रवृत्तियों पर करीब से निगाह रखने वालों को वे चौंकाते बिल्कुल नहीं। बहू-बेटे, भारतीय परंपरा के ह्रास और बढ़ते उपभोक्तावाद को दोषी ठहराने के विलाप के बाद ज्यादातर लोग सरकार/ पुलिस/ स्वयंसेवी संगठनों को बुजुर्गों की देखभाल की जिम्मेदारी संभालने का पुराना सूत्र सुझाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेंगे। बुजुर्गों से दुर्व्यवहार के वास्तविक दोषियों का नाम तक नहीं लिया जाएगा।

बलात्कार की ही तरह बुजुर्गों से दुव्र्यवहार की जड़ें भारतीय समाज की पितृसत्ता में ही हैं। इसके पीछे वह सोच है, जो पैदा होते ही बेटों को मां-बाप के बुढ़ापे की लाठी, कुल का उजाला, पितरों का उद्धारक और अपरिहार्य रूप से संपत्ति का निर्विवाद उत्तराधिकारी घोषित कर देती है। ऐसी स्थिति में खुद मां-बाप की भूमिका संपत्ति के उन ट्रस्टियों की बन जाती है, जिनका नैतिक कर्तव्य संपत्ति को उसके वास्तविक स्वामी के हित में पोषित-संवद्र्धित करना होता है। आस-पास निगाह दौड़ाएं, तो हम अधिकतर मां-बाप को ट्रस्टीशिप की इन शर्तों पर खरा उतरते पाते हैं। जो मुट्ठी भर मां-बाप इनका उल्लंघन करते हैं, उन्हें कई तरह से सामाजिक आलोचना झेलनी पड़ती है।

सहज ही है कि बेटे एक खास अवधि तक अपने ट्रस्टियों की भूमिका को किसी तरह झेलते हैं। और इस स्व-निर्धारित अवधि के बीतते ही वे ‘सिंहासन खाली करो’ की तर्ज पर ‘अपनी धरोहर’ पर नियंत्रण पाने के प्रयासों में जुट जाते हैं। अखबारों में अक्सर छपने वाली खबरों को आधार मानें, तो इन प्रयासों में ट्रस्टियों के साथ मौखिक और शारीरिक दुव्र्यवहार से लेकर मुकदमेबाजी और उन्हीं के बनाए मकानों से उन्हें बेदखल करना तक शामिल होता है। यह सिलसिला पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलते-चलते एक समाज-स्वीकृत व्यवहार की मान्यता पा चुका है। ठीक वैसे ही, जैसे कभी इस देश में सती प्रथा थी और आज बाल-विवाह व दहेज वगैरह हैं।

अगले डेढ़ दशक में भारत की आबादी के युवा बहुल होने और उसकी संभावनाओं के श्रम बाजार द्वारा दोहन के बारे में काफी चर्चा होती है। लेकिन  बुजुर्गों की दशा में युवाओं की स्पष्ट अरुचि पर विचार नहीं होता, जबकि बुजुर्ग जनसंख्या का दूसरा महत्वपूर्ण व बड़ा वर्ग हैं। अगले चार दशक में भारत की जनसंख्या में बुजुर्गों की संख्या भी नाटकीय रूप से बढ़ने के पूर्वानुमान हैं। ये दो तथ्य- युवाओं की बुजुर्गों की दशा में रुचि न लेना, और अगले दो दशकों में भारत की जनसंख्या में युवाओं व बुजुर्गों की संख्या बहुत अधिक होना- भविष्य में स्थिति के विस्फोटक होने के संकेत हैं। यह सही समय है, जब हम उज्ज्वल परंपराओं की ढपली बजाते रहने की बजाय उनका पुनर्मूल्यांकन करें और जहां जरूरी हो, वहां उन्हें संशोधित करने या उन्हें पूरी तरह तिलांजलि देने को तैयार रहें।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

 

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