महिला सशक्तीकरण: आरक्षण से आगे
प्रधानमंत्री ने महिला सरपंचों को उनके बेहतर काम के लिए बधाई देते हुए उनके पतियों के काम में हस्तक्षेप न करने की सलाह दी है। प्रधानमंत्री के इस बयान से दो तथ्य स्पष्टत: उभर कर आते हैं, पहला तो यह कि...
प्रधानमंत्री ने महिला सरपंचों को उनके बेहतर काम के लिए बधाई देते हुए उनके पतियों के काम में हस्तक्षेप न करने की सलाह दी है। प्रधानमंत्री के इस बयान से दो तथ्य स्पष्टत: उभर कर आते हैं, पहला तो यह कि देश भर में महिला सरपंच जो काम कर रही हैं उसे पहचान मिल रही है, दूसरे आज भी उन्हें काम करने की पूरी आजादी नहीं मिली हुई। उनके पतियों का उनके कामों में हस्तक्षेप रहता है। ‘सरपंच पति’ यह शब्द अब लोगों के लिए नया नहीं रहा। जो बताता है कि ‘आरक्षण’ के माध्यम से पंचायतों में महिलाओं ने सत्ता हासिल की है पर पुरुष अभी भी खुद को सत्ता का हकदार मानकर, अभी भी सत्ता को नियंत्रित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ता। अब मध्य प्रदेश ने पंचायतों के कामकाज में महिला सरपंचों के पति के शामिल होने पर पाबंदी लगा दी है।
उसके लिए यह स्थिति इसलिए बहुत सहज हो जाती है कि भारतीय समाज में वह भी विशेषकर ग्रामीण पृष्ठभूमि में स्त्री स्वयं को अपने पति से हर दृष्टि से कमतर समझती है, जिसका एक सीधा और स्पष्ट कारण ‘शिक्षा’ का अभाव है। राजस्थान ने हाल ही में हुए पंचायती चुनाव में आठवीं तक पढ़े होने की पात्रता को अनिवार्य कर एक ऐसा रास्ता खोला है जहां मजबूरन ही सही, राजनीति की चाह रखने वाले परिवार, स्त्रियों को शिक्षित करेंगे। महिला सरपंचों की राह में शिक्षा से जुड़ी कई चुनौतियां हैं, जैसे पंचायत के कामकाजों की जानकारी का अभाव और इसके चलते ही उन्हें मजबूरन अपने पति या गांव के शक्तिशाली लोगों की बातों को स्वीकार करना पड़ता है। यूं तो ‘द हंगर प्रोजेक्ट’ नामक संस्था महिला पंचायत प्रतिनिधियों में नेतृत्व क्षमता विकास के लिए विशेष कार्यक्रम संचालित करती है परन्तु इसकी पहुंच संपूर्ण भारत में हो ऐसा संभव नहीं। इसलिए हर राज्य में ऐसे संस्थान की आवश्यकता है जो उनके ‘अधिकारों और कर्तव्यों की जानकारी के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए। कई राज्य एक दिन का कार्यक्रम चलाते हैं जो कि महज खानापूर्ति के अलावा कुछ नहीं है। हमने पंचायतों में ‘महिला आरक्षण’ तो दे दिया पर पुरुष सत्ता से लड़ने की क्षमता विकसित करने का और आत्मविश्वास जागृत करने के प्रयास भी आवश्यक है।
एक नया चलन यह देखने में आया है कि जिन सीटों पर महिलाओं के लिए आरक्षण नहीं है उन्हें ‘पुरुष सीट’ कहा जाने लगा है, अक्सर महिलाओं को इन सीटों से चुनाव न लड़ने की सलाह दी जाती है। जबकि यह पूरी तरह आरक्षण की मूल भावना के ही खिलाफ है। पंचायत निर्वाचन के नियमों के अनुसार महिलाएं किसी भी सीट पर चुनाव लड़ सकती हैं, चाहे वह सीट आरक्षित हो या अनारक्षित, जबकि पुरुष सिर्फ अनारक्षित सीटों पर ही चुनाव लड़ सकते हैं। यह सब बताता है कि महिलाओं को आरक्षण देने का अर्थ यह नहीं है कि इससे उनका सशक्तीकरण शुरू हो जाएगा, इसके लिए लगातार प्रयास करने होंगे।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)