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लीमा वार्ता से पेरिस समझौते की ओर

जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के लीमा सम्मेलन के बाद अब सबकी निगाहें अगले वर्ष पेरिस में होने वाले समझौते पर टिकी हैं। लीमा की वार्ता कितनी सफल रही, इस बारे में दोराय हो सकती है, पर इतना निश्चित...

लीमा वार्ता से पेरिस समझौते की ओर
लाइव हिन्दुस्तान टीमThu, 18 Dec 2014 10:27 PM
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जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के लीमा सम्मेलन के बाद अब सबकी निगाहें अगले वर्ष पेरिस में होने वाले समझौते पर टिकी हैं। लीमा की वार्ता कितनी सफल रही, इस बारे में दोराय हो सकती है, पर इतना निश्चित है कि पेरिस समझौते को सफल बनाने के लिए अभी बहुत प्रयास करने शेष हैं।

जलवायु में बदलाव ऐसा संकट है, जिसका समाधान समय पर नहीं हुआ, तो धरती की जीवनदायिनी क्षमता ही खतरे में पड़ सकती है। समुद्र का जल-स्तर उठने से विशाल तटीय क्षेत्र जलमग्न हो सकते हैं, खाद्य सुरक्षा संकट-ग्रस्त हो सकती है और कई छोटे टापू देशों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है। कुछ हद तक तो यह सब शुरू हो भी चुका है, इसलिए अब इन प्रयासों में कोई कमी नहीं रहनी चाहिए। चिंता यही है कि अभी तक ऐसी योजना पर सहमति नहीं बन सकी है, जो वास्तव में असरदार हो। लीमा वार्ता को लेकर यह संतोष हो सकता है कि 194 देशों ने एक दस्तावेज को स्वीकृत किया है। भारत के पर्यावरण मंत्री ने कहा कि हमारी मांगों को इस दस्तावेज में मान्यता भी मिली है। लेकिन अधिक व्यापक और महत्वपूर्ण सवाल फिर भी सामने रह जाता है कि क्या उचित समय में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में इतनी कमी लाई जा सकेगी, जिससे जलवायु परिवर्तन के संकट को आवश्यकता के मुताबिक कम किया जा सके।

सबसे बड़ी व तात्कालिक चुनौती यह है कि वायुमंडल के तापमान को किस तरह उस सीमा के भीतर रखा जाए, जिससे समुद्र का जल-स्तर ज्यादा न बढ़े। अगर हम ऐसा नहीं कर सके, तो बहुत सारे द्वीपीय देशों और बहुत सी संस्कृतियों से हाथ धो बैठेंगे। ग्रीन गठबंधन के निदेशक व ब्रिटिश सरकार के पूर्व सलाहकार स्टीफेन हेल ने लिखा है कि कडम्वी सच्चाई तो यही है कि हम विफल हो रहे हैं। जलवायु परिवर्तन पर काम करने वाले सबके सामूहिक प्रयासों का अभी तक जो परिणाम मिला, वह उससे बहुत कम है, जो संकट के समाधान के लिए चाहिए। जिस तेज गति से व जिस बड़े पैमाने पर सब कुछ होना चाहिए, उसकी संभावना नहीं नजर आ रही। दिक्कत यह भी है कि इस काम के लिए धन की आवश्यकता है, और धनी देशों ने पहले जो वादे किए थे, उससे वे निरंतर पीछे हट रहे हैं। कुछ तो इसमें मुनाफे की गुंजाइश भी ढूंढ रहे हैं।

साल 2015 में पेरिस के समझौते से पहले इन समस्याओं का समाधान कर एक बड़ी पहल आरंभ करनी होगी। सबसे जरूरी है अमीर और गरीब, सभी तरह के देशों की सोच को बदलना, दुनिया के कार्य-व्यापार और तौर-तरीकों को बदलना। उससे भी बड़ी चीज है उस जीवन शैली को बदलना, जिसे पूरी दुनिया ने इस तरह से अपना लिया है कि इसमें थोड़ा-सा भी हेर-फेर लोगों को मुमकिन नहीं लगता। वर्तमान के स्वार्थो को त्याग करके ही हम अच्छे भविष्य की बात सोच सकते हैं।

     (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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