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आदत बदलकर मिलेगी गंदगी से मुक्ति

सामाजिक रूप से गंदगी हमारे लिए कभी निजी या सामूहिक शर्म का विषय नहीं रही। इसीलिए सरकारी और एनजीओ वगैरह की फोटो खिंचाने वाली औपचारिकताओं को छोड़ दें, तो नरेंद्र मोदी का स्वच्छ भारत अभियान अब भी हमारे...

आदत बदलकर मिलेगी गंदगी से मुक्ति
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 31 Oct 2014 08:32 PM
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सामाजिक रूप से गंदगी हमारे लिए कभी निजी या सामूहिक शर्म का विषय नहीं रही। इसीलिए सरकारी और एनजीओ वगैरह की फोटो खिंचाने वाली औपचारिकताओं को छोड़ दें, तो नरेंद्र मोदी का स्वच्छ भारत अभियान अब भी हमारे समाज का एक बड़ा मुद्दा नहीं बना है, जबकि यह समस्या बहुत हद तक हमारे स्वभाव से जुड़ी हुई है। बहुत सारे लोग सार्वजनिक गंदगी को लेकर भले ही नाक-भौं सिकोड़ते हों, लेकिन वे ही लोग सार्वजनिक गंदगी को बढ़ाने में पूरी भूमिका निभाते हैं। आम तौर पर हमारी सोच यही है कि जो हमारा निजी है, वह साफ रहे, बाकी से क्या लेना-देना? इसलिए हमारे घर साफ होते हैं, दुकानें साफ होती हैं, सिनेमा हॉल साफ होते हैं, क्योंकि वे निजी हैं, मॉल साफ होते हैं, लेकिन सड़कें गंदी होती हैं, पार्क गंदे होते हैं, स्टेशन गंदे होते हैं, अस्पताल गंदे होते हैं। और सार्वजनिक स्थानों की बहुत सारी गंदगी वही होती है, जो हमारे निजी स्थानों की सफाई के क्रम में पैदा होती है।

आदत को बदलने का काम कैसे किया जाए, इसे हम धूम्रपान के खिलाफ देश भर में चले उस अभियान से सीख सकते हैं, जिसने बहुत से लोगों को इस आदत से छुटकारा दिला दिया। इसकी शुरुआत 1985 में माधव राव सिंधिया के रेल मंत्री बनने के साथ हुई थी। पहले ट्रेन में लिखा होता था कि धूम्रपान करने से अगर दूसरे यात्राियों को परेशानी होती है, तो कृपया सिगरेट-बीड़ी न पिएं। रेलवे ने सुझाव को कानून में बदल दिया। ट्रेनों में और स्टेशनों पर स्मोकिंग करने पर आर्थिक दंड लागू कर दिया गया। स्टेशनों पर सिगरेट-बीड़ी, पान बेचना प्रतिबधिंत कर दिया गया। यही काम घरेलू उड़ानों में भी हुआ और इसके बाद इसे कई सरकारी विभागों और निजी इमारतों, रेस्तरां वगैरह में भी अपनाया गया।
गंदगी से युद्ध आसान नहीं है, लेकिन गंदगी फैलाने वालों के खिलाफ कड़े नियमों और खासकर कड़े आर्थिक दंड के बिना इसे बहुत आगे नहीं ले जाया जा सकता। चीन और पश्चिम एशिया के कई देशों ने इसकी शुरुआत आर्थिक दंड से ही की थी और कामयाबी भी हासिल की। दिल्ली की मेट्रो रेल इसका उदाहरण है, जहां आर्थिक दंड के प्रावधान के कारण सफाई के लक्ष्य को कुछ हद तक हासिल किया जा सका है। हालांकि, वहां भी, इसे और आगे बढ़ाने की जरूरत है। इसके साथ हर शहर में दिल्ली मेट्रो जैसे कुछ उदाहरण तैयार किए जा सकते हैं, जिससे लोग सीख सकें व प्रेरणा ले सकें।

कुछ मुद्दे ऐसे होते हैं, जिन्हें उठाने के बाद शिथिल नहीं पड़ने देना चाहिए, न ही उन्हें सिर्फ प्रतीकात्मकता तक सीमित रहने देना चाहिए। सामाजिक सुधार से जुड़े सवाल ऐसे ही होते हैं, जिन्हें अंजाम तक पहुंचाना जरूरी होता है। स्वच्छता का मामला ऐसा ही है। हम चाहें तो इसमें राजनीति भी देख सकते हैं, लेकिन राजनीति भी अक्सर सामाजिक पहल की विश्वसनीयता और उसके दायरे को बढ़ाती है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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