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भविष्य का खतरा और वर्तमान के स्वार्थ

 ग्लोबल वार्मिग का डर अब दुनिया को सताने लगा है। वैज्ञानिक इस पर शोध करने में जुट गए हैं कि अगर सचमुच यह स्थिति आई, तो इसका असर कहां तक पड़ेगा? ऐसे शोधों के नतीजे चौंकाने वाले हैं। वैश्विक...

भविष्य का खतरा और वर्तमान के स्वार्थ
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 22 Aug 2014 08:53 PM
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 ग्लोबल वार्मिग का डर अब दुनिया को सताने लगा है। वैज्ञानिक इस पर शोध करने में जुट गए हैं कि अगर सचमुच यह स्थिति आई, तो इसका असर कहां तक पड़ेगा? ऐसे शोधों के नतीजे चौंकाने वाले हैं। वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी से मानव का कद भी छोटा हो सकता है। फ्लोरिडा और नेब्रास्का यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने नए शोध के आधार पर यह नतीजा निकाला है। दूसरी तरफ, उत्तर भारत में गेहूंं उपजाने वाले प्रमुख इलाकों में किए गए स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर डेविड बी लोबेल और एडम सिब्ली व अंतरराष्ट्रीय मक्का व गेहूं उन्नयन केंद्र के जे इवान ओर्टिज मोनेस्टेरियो के अध्ययन के मुताबिक, तापमान में एक डिग्री की बढ़ोतरी गेहूं की फसल को दस फीसदी तक प्रभावित करेगी। यानी बढ़ता तापमान आपकी रोटी भी निगल सकता है। तापमान में बढ़ोतरी का दुष्परिणाम समुद्र के पानी के लगातार तेजाबी होते जाने के रूप में सामने आया है। नए शोध के मुताबिक, अगर समुद्र का पानी लगातार अम्लीय होता रहा, तो पानी में रहने वाली तकरीबन 30 फीसदी प्रजातियां सदी के अंत तक लुप्त हो सकती हैं। ईंधन के जलने से वातावरण में जितनी भी कार्बन डाईऑक्साइड गैस उत्सर्जित होती है, उसका ज्यादातर हिस्सा समुद्र सोख लेते हैं। यही वजह है कि समुद्र का पानी अम्लीय होता जा रहा है। वैज्ञानिकों ने आगाह किया है कि समुद्री जल में जिस तेजी से परिवर्तन आ रहे              हैं, उस नुकसान की भरपायी में हजारों-लाखों साल लग जाएंगे।

सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि दुनिया का कोई भी देश इस संकट की भयावहता के बावजूद कुछ नहीं कर रहा। विकसित देश इस मुद्दे पर स्वार्थवश मौन हैं। वे अपने यहां कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने को तैयार नहीं हैं। न ही वे विकासशील देशों को मदद देने को आगे आ रहे हैं। विकासशील देशों पर उत्सर्जन में कमी लाने का दबाव वे जरूर बना रहे हैं।

वारसा बैठक में उनका इस मुद्दे पर अड़ियल रुख इस बात का सबूत है कि अब वे दोहा बैठक में तय हर साल ग्रीन क्लाइमेट फंड हेतु सौ अरब डॉलर की राशि देने के वायदे पर अमल करने के इच्छुक नहीं हैं। इस बैठक में तय हुआ था कि विकसित देश  साल 2020 तक सौ अरब डॉलर की राशि हर साल देंगे। इस राशि का इस्तेमाल गरीब एवं विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ने की योजनाएं बनाने और तकनीक को विकसित करने के लिए किया जाना था। वारसा वार्ता में इस दिशा में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा जा सका। इसके अलावा वारसा बैठक में 2015 के जलवायु परिवर्तन समझौते को लेकर एक समय सीमा के निर्धारण पर सहमति बनाने और दोहा जलवायु वार्ता में बनी सहमति के अनुसार नुकसान और क्षति के लिए एक तंत्र को संस्थागत रूप देना भी अहम मुद्दा था। वह भी अनसुलझा ही रह गया। वर्तमान स्वार्थो को बनाए रखने की जिद भावी संकट को बढ़ा रही है।

     (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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