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कठघरे में खड़ी जजों की नियुक्ति

कॉलेजियम व्यवस्था फिर चर्चा में है। कॉलेजियम उच्चतम न्यायालय की वह व्यवस्था है, जिससे उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति होती है। कॉलेजियम की कार्य-प्रणाली को लेकर सवाल कोई...

कठघरे में खड़ी जजों की नियुक्ति
लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 23 Jul 2014 10:21 PM
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कॉलेजियम व्यवस्था फिर चर्चा में है। कॉलेजियम उच्चतम न्यायालय की वह व्यवस्था है, जिससे उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति होती है। कॉलेजियम की कार्य-प्रणाली को लेकर सवाल कोई पहली बार नहीं उठा है। सच तो यह है कि 1993 में, जब से जजों की नियुक्ति का काम कार्यपालिका के हाथ से न्यायपालिका के हाथों में आया है, तभी से इस व्यवस्था पर सवाल उठ रहे हैं। हाल ही में जब जज के पद पर गोपाल सुब्रमण्यम की नियुक्ति पर उच्चतम न्यायालय और केंद्र सरकार के बीच टकराव की स्थिति पैदा हुई थी, तब भी कॉलेजियम व्यवस्था पर विवाद खड़ा हुआ था। ताजा विवाद मद्रास हाईकोर्ट के मुख्य न्यायधीश और उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीश रह चुके मरकडेय काटजू के एक लेख से खड़ा हुआ है, जिसमें उन्होंने एक तदर्थ जज को सेवा विस्तार देने का मामला उठाया है। इन जज के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायतें थीं, लेकिन यूपीए में शामिल दल द्रमुक उसके पक्ष में था। पहले उन्हें सेवा विस्तार दिया गया और बाद में स्थायी जज बना दिया गया। वैसे न्यायमूर्ति काटजू ने जो मामला उठाया है, वह कोई नया नहीं है। प्रसिद्ध वकील शांति भूषण ने इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में उठाया भी था। न्यायालय ने वह याचिका खारिज कर दी, किंतु यह भी कहा कि इसमें भारत के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश की भूमिका सही नहीं थी।

फिलहाल सारी बहस में एक बड़ा सवाल यह भी बन गया है कि काटजू ने इस मुद्दे को उठाने के लिए यही समय क्यों चुना? वह इस मामले में इतने दिनों तक चुप क्यों रहे? अगर सेवा विस्तार का यह फैसला काटजू की सिफरिश के विपरीत था, तो उन्होंने इस पर अपनी आपत्ति क्यों नहीं दर्ज कराई? कॉलेजियम के काम करने का एक तरीका यह भी है कि इसमें उन जजों से भी परामर्श किया जाता है, जो उस उच्च न्यायालय से आते हैं, जिसके लिए जज की नियुक्ति हो रही है। भले ही वे जज कॉलेजियम के सदस्य न हों। यदि इसके लिए काटजू से सलाह नहीं ली गई, तब भी वह स्वतंत्र रूप से अपना विरोध लिखित रूप में दे सकते थे। उन्होंने लिखा है कि उस जज के विरुद्ध आठ जजों ने प्रतिकूल टिप्पणियां की थीं, जिसे मद्रास उच्च न्यायालय के एक कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश ने एक झटके में खत्म कर दिया। अगर ऐसा हुआ, तो यह पूरी तरह गलत था, क्योंकि मुख्य न्यायाधीश को मामला न्यायालय के पूर्ण पीठ को सौंपना चाहिए था। लेकिन यदि ऐसा नहीं किया गया, तो न्यायमूर्ति काटजू ने बाद में ऐसा क्यों नहीं किया? वह उस घटना के बाद मद्रास उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश थे और वह पूर्ण पीठ को उस पर पुनर्विचार करने के लिए कह सकते थे। भले ही मौखिक या लिखित रूप से उन्होंने भारत के प्रधान न्यायाधीश को सूचना दी हो और खुफिया ब्यूरो से जांच करवाने की सिफारिश की हो, पर यह पर्याप्त नहीं था। उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की अनुशंसा के बिना उस न्यायालय के किसी अतिरिक्त जज को सेवा विस्तार नहीं दिया जा सकता। उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में रिकॉर्ड किया है कि एक के बाद एक मुख्य न्यायाधीशों ने उस जज पक्ष में सिफारिश की। फिर न्यायमूर्ति काटजू उसी कॉलेजियम की आलोचना कर रहे हैं, जिसने उन्हें उच्चतम न्यायालय का जज बनाया। वैसे भी वह कॉलेजियम व्यवस्था के अंतर्गत ही उच्च न्यायालय के जज बने थे। हो सकता है कि अपनी पदोन्नति की चिंता में उन्होंने तब कॉलेजियम को नाराज करना उचित न समझा हो।

इसे लेकर अब न्यायपालिका की स्वायत्तता का मामला उठाया जा रहा है। कहा जा रहा है कि एक अस्थायी जज की सेवा स्थायी करने के लिए राजनीतिक दबाव डाला गया। अग यह सच है, तो यह भी उतना ही सही है कि स्वायत्तता को खतरा केवल बाहर से नहीं, बल्कि अंदर से भी है। यह एक सच्चाई है कि उच्च न्यायालय का कोई भी न्यायाधीश कॉलेजियम के सदस्यों को नाराज नहीं  करना चाहता है।

यह तथ्य भी सामने आया है कि प्रधानमंत्री कार्यालय से 17 जून, 2005 को न्याय मंत्रलय को इस जज की सेवा स्थायी करने के लिए पत्र लिखा गया था और फिर तत्कालीन विधि मंत्री हंसराज भारद्वाज ने प्रधान न्यायाधीश को पत्र लिखा। सरकार के हर पत्र या उसकी हर आशंका को राजनीतिक हस्तक्षेप मानना गलत है। कार्यपालिका को पूरा अधिकार है कि यदि कोई सूचना उसे मिलती है या ऐसा लगता है कि कुछ गलत हुआ है, तो उसे वह प्रधान न्यायाधीश की नजर में लाए। पर काटजू का कहना है कि ऐसा इसलिए किया गया, क्योंकि गठबंधन के सहयोगी दल ने मनमोहन सिंह सरकार को गिराने की धमकी दी। पता नहीं काटजू ने किस आधार पर इतने आधिकारिक तौर पर ऐसा लिखा है। परंतु यदि यह सत्य है, तो निश्चित रूप से यह न्यायपालिका की स्वायत्तता पर कुठाराघात है। इससे एक बात और प्रमाणित होती है कि कॉलेजियम व्यवस्था के बावजूद सरकार जिसकी नियुक्ति करवाना चाहती है, करा लेती है। कॉलेजियम व्यवस्था जब बनी थी, तब यह तर्क दिया गया था कि सरकार सबसे बड़ी मुकदमेबाज बन गई है और न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए जजों की नियुक्ति का अधिकार उसके पास नहीं होना चाहिए।

काटजू के खुलासे से राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन की बात भी उठने लगी है। विधि मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने संसद को इसका आश्वासन दिया है। राज्यसभा में तो इस बारे में विधेयक भी पारित हो चुका है। लोकसभा में यह भाजपा के विरोध के कारण पारित नहीं हो पाया था। भाजपा का तर्क था कि आयोग के गठन का प्रावधान भी संविधान में शामिल किया जाना चाहिए, ताकि उसमें परिवर्तन करने के लिए संविधान संशोधन की जरूरत पड़े, जिसके लिए दो-तिहाई बहुमत की जरूरत होती है, जबकि सामान्य कानून में संशोधन सामान्य बहुमत से हो जाता हैं।

इन विवादों ने बता दिया है कि कॉलेजियम व्यवस्था असफल हो चुकी है। परंतु दूसरी जो भी व्यवस्था हो, उसमें ऐसा इंतजाम जरूरी है कि सौदेबाजी न हो और सही व्यक्ति जज बने। फिलहाल न्यायमूर्ति काटजू को इस बात का जवाब देना होगा कि उच्चतम न्यायालय से अवकाश ग्रहण करने के बाद भी वह तीन वर्षो तक चुप क्यों रहे? बोले भी तब, जब भारतीय प्रेस परिषद का उनका कार्यकाल समाप्त हो रहा है और जिस जज के बारे में वह बोल रहे हैं, उनका पांच साल पहले ही निधन हो चुका है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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