उलझ गई अफगान आम चुनाव की गुत्थी
अफगानिस्तान में लोकतंत्र का प्रयोग खतरे में पड़ गया है। अभी कुछ दिन पहले तक वोटों की गिनती का काम ठीक-ठाक चल रहा था। अचानक अफगानिस्तान के इलेक्शन कमीशन ने यह घोषणा कर दी कि दूसरे चरण में पूर्व...
अफगानिस्तान में लोकतंत्र का प्रयोग खतरे में पड़ गया है। अभी कुछ दिन पहले तक वोटों की गिनती का काम ठीक-ठाक चल रहा था। अचानक अफगानिस्तान के इलेक्शन कमीशन ने यह घोषणा कर दी कि दूसरे चरण में पूर्व वित्त मंत्री अशरफ घनी को पूर्व विदेश मंत्री अब्दुल्ला-अब्दुल्ला के मुकाबले बहुत अधिक मत मिले हैं। जबकि इसके पहले अब्दुल्ला-अब्दुल्ला काफी आगे चल रहे थे। बाद में अब्दुल्ला-अब्दुल्ला के समर्थक न सिर्फ धोखाधड़ी के आरोप लगाने शुरू कर दिए, बल्कि समानांतर सरकार बनाने की धमकी भी दी है। इसके बाद अमेरिका को भी जवाबी धमकी देनी पड़ी कि वह अफगानिस्तान को मदद देना बंद कर देगा।
इस पर अमेरिका की चिंता आसानी से समङी जा सकती है। उसने अपना पूरा दांव अफगानिस्तान में लोकतंत्र के इस प्रयोग पर लगा रखा था। राष्ट्रपति ओबामा को पता है कि थोड़ी-सी भी गड़बड़ी उनकी सारी योजनाओं पर पानी फेर सकती है। जैसे-जैसे अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की विदाई की घड़ी नजदीक आ रही है, अमेरिका चाहता है कि वहां ऐसा माहौल तैयार हो जाए, जिसमें उसके लिए भविष्य के खतरे बहुत कम हों। अगर वहां लोकतंत्र का प्रयोग सिरे नहीं चढ़ता और लोकतंत्र समर्थक विभाजित होते हैं, तो तालिबान को अपने मनसूबे पूरे करने के लिए खुला मैदान मिल जाएगा। इसीलिए विवाद सामने आते ही ओबामा ने विदेश मंत्री जॉन केरी को तुरंत काबुल रवाना कर दिया, ताकि ऐसा रास्ता निकाला जाए, जो दोनों पक्षों को स्वीकार्य हो। अब केरी के समझाने-बुझाने पर अब्दुल्ला-अब्दुल्ला और अशरफ घनी इस बात के लिए तैयार हो गए हैं कि मतपत्रों की बारीकी से जांच की जाएगी और यह पता लगाया जाएगा कि मतदान में कहीं धोखाधड़ी तो नहीं हुई। दोनों पक्षों से लंबी बातचीत के बाद यह फैसला हुआ है कि वोटों की फिर से गिनती के बाद चुनाव परिणाम जो भी आए, देश में एक नेशनल यूनिटी सरकार बनेगी, जिसमें अब्दुल्ला-अब्दुल्ला और अशरफ घनी, दोनों सहयोग करेंगे।
इस बीच नए फॉर्मूले खोजे जाने लगे हैं। कुछ विशेषज्ञ यह सुझा रहे हैं कि दोनों प्रत्याशी ढाई-ढाई वर्ष के लिए राष्ट्रपति बनें। यह प्रयोग इजरायल में किया गया था, जब साइमन पेरेज 1984 में दो वर्ष के लिए इजरायल के प्रधानमंत्री बने थे और उनके प्रतिद्वंद्वी याक समीर ने उप-प्रधानमंत्री का पद स्वीकार कर लिया था। दो वर्षो के बाद याक समीर प्रधानमंत्री बने और साइमन पेरेज उप-प्रधानमंत्री बने। लेकिन अभी सवाल यह है कि क्या अब्दुल्ला-अब्दुल्ला और अशरफ घनी इस व्यवस्था के लिए तैयार होंगे? दूसरा रास्ता यह निकल सकता है कि नए सिरे से चुनाव हों। लेकिन इसमें लंबा वक्त लग सकता है, और इतना समय अमेरिका के पास नहीं है। फिर इराक के बाद वह लोकतंत्र का एक और प्रयोग नाकाम होते नहीं देखना चाहता।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)