सतासी साल का रेडियो
दर्जी, लुहार, बढ़ई, कारीगर और अपने पापा को बचपन से जिस रेडियो के बीच रमते-काम करते देखता आया हूं, अक्सर सोचता हूं कि अगर रेडियो इनकी जिंदगी में नहीं होता, तो क्या तब भी ये ब्लाउज की बांह पर मशीन...
दर्जी, लुहार, बढ़ई, कारीगर और अपने पापा को बचपन से जिस रेडियो के बीच रमते-काम करते देखता आया हूं, अक्सर सोचता हूं कि अगर रेडियो इनकी जिंदगी में नहीं होता, तो क्या तब भी ये ब्लाउज की बांह पर मशीन चलाते वक्त बिल्कुल अलग मनोभावों में खो पाते। शरीर से तर-बतर पसीना आते रहने के बीच भी लुहार मुस्करा रहा होता व प्राण का मिजाज लिए मेरे पापा जब-तब तरल हो जाते। 23 जुलाई को इस रेडियो के कुल 87 साल हो गए। हिन्दुस्तान में अलग-अलग संदर्भो से इसका एक व्यवस्थित इतिहास है, किंतु कोई जाकर सत्तर साल के उन दर्जियों से, इतनी ही उम्र के बढ़ई-लुहारों और साड़ी का काम करने वाले फनकारों से पूछे कि अगर रेडियो न होता, तो आपके काम पर क्या असर पड़ता? दिलचस्प स्टोरी निकलेगी। आपने कभी गौर किया है, उनकी सिलाई मशीन, हथौड़े, लकड़ी छीलने वाली मशीन के आगे रेडियो की आवाज दब जाती है, हमें और आपको कुछ सुनाई नहीं देता, पर इसी शोर व रेडियो के बीच एक तीसरी धुन बनती है, जो काम कर रहे कारीगरों, फनकारों के बीच सप्तक की शक्ल में बजती रहती है। आप थोड़ी देर खड़े होकर महसूस कीजिए, आपको लगेगा कि इन सबके लिए यह ज्यादा मायने नहीं रखता कि रेडियो से आवाज आ रही है या नहीं, मायने बस यह रखता है कि उनकी तेज आती-जाती सांसों के बीच एक तरंगधैर्य है, जो हर सांस के साथ अपनी फ्रीक्वेंसी फिट कर रहा है। यह हमारे बीच यों ही धड़कता रहे तमाम नए तामझाम के आने के बावजूद।
विनीत कुमार की फेसबुक वॉल से