फिर इतिहास रचने को बेताब उत्तर प्रदेश
लोकसभा चुनाव के चार दौर हो चुके हैं। पांचवें दौर की तैयारी है। इन सबके बीच उत्तर प्रदेश करवट ले रहा है। वह प्रदेश, जो देश की तकदीर लिखता रहा है, देश को सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री जिस प्रदेश ने दिए हैं,...
लोकसभा चुनाव के चार दौर हो चुके हैं। पांचवें दौर की तैयारी है। इन सबके बीच उत्तर प्रदेश करवट ले रहा है। वह प्रदेश, जो देश की तकदीर लिखता रहा है, देश को सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री जिस प्रदेश ने दिए हैं, इस बार भी यह प्रदेश एक नया इतिहास रचने जा रहा है। प्रधानमंत्री पद के कई बड़े दावेदार यहीं से किस्मत आजमा रहे हैं। लोकसभा की 80 सीटों के मालिक इस प्रदेश ने हर बार नया इतिहास रचा है। याद करिए 2009 का आम चुनाव। तब किसी को यकीन नहीं था कि कांग्रेस पार्टी यहां से 22 सीटें जीत पाएगी। तमाम सर्वे और ओपिनियन पोल ध्वस्त हो गए। केंद्र की यूपीए सरकार में कांग्रेस की धमक अचानक ही बढ़ गई। बीते 20 साल में कांग्रेस का इस प्रदेश में वह सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था। हालांकि दो साल पहले हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पूरी ताकत झोंकने के बावजूद फिर एक बार जमीन पर आ गई। प्रदेश के मतदाताओं ने दिल खोलकर समाजवादी पार्टी को बहुमत दिया। इतनी उम्मीद तो शायद सपा के नेताओं को भी नहीं थी।
उत्तर प्रदेश को नजरअंदाज करने की हिम्मत किसी दल में नहीं है। अनेक सांस्कृतिक इकाइयों में बंटे इस प्रदेश की अपनी खूबी है। हर सांस्कृतिक इकाई का अपना अलग वजूद है। अलग संस्कृति है। ब्रज की अपनी एक अलग विरासत है, तो पश्चिमांचल की अपनी अलग। बुंदेलखंड और रुहेलखंड की संस्कृति अलग है, तो पूर्वांचल की बिल्कुल अलग। हर संस्कृति अपने आप में बिल्कुल अलग दुनिया है। इनके अलग मुद्दे , अलग मसले, अलग तेवर और अलग-अलग राग हैं। भारतीय जनता पार्टी के लिए यह प्रदेश कितना महत्वपूर्ण है, इसे इसी से समझा जा सकता है कि प्रधानमंत्री पद के उसके मुखर दावेदार नरेंद्र मोदी ने अपने प्रचार अभियान की शुरुआत इसी प्रदेश से की। 1990 के दशक में मंदिर आंदोलन से भाजपा को यहीं से प्राणवायु मिली थी। इस बार भाजपा की पूरी कोशिश अपना खोया साम्राज्य पाने की है। यही वजह है कि नरेंद्र मोदी ने अपने सबसे विश्वस्त सलाहकार अमित शाह को इस प्रदेश की जिम्मेदारी सौंपी। काफी हद तक उनकी यह रणनीति सफल भी होती दिख रही है।
विधानसभा चुनावों में हाशिये पर पहुंची पार्टी लोकसभा में मुख्य मुकाबले में दिख रही है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपनी पूरी ताकत इस प्रदेश में झोंक दी है। संघ की पहुंच गांव-गांव गली-गली मानी जाती है। वोटरों को घर से निकालने और बूथ तक पहुंचाने की कमान इस बार संघ के हाथ में है। संघ के प्रचारक सुनील बंसल इसके लिए दिन-रात एक कर रहे हैं। सुनील बंसल खास तौर पर युवाओं के बीच काम करते रहे हैं। यहां तक कि टिकट बंटवारे के बाद फैले अंसतोष को दबाने का काम भी सुनील बंसल को ही सौंपा गया था। अमित शाह के प्रमुख सहयोगी भी अब सुनील बंसल ही हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में जनाधार बढ़ाने के लिए खुद नरेंद्र मोदी को बनारस से मैदान में उतरना पड़ा है। भाजपा की पूरी आस इसी प्रदेश पर टिकी है। भाजपा बात विकास की कर रही है। कोशिश मगर है, वोटों का ध्रुवीकरण कैसे हो? अपनी इस रणनीति में फिलहाल वह कामयाब होती दिख रही है। नरेंद्र मोदी के अलावा कई बड़े दिग्गजों की भी साख दांव पर लगी हुई है। इनमें राजनाथ सिंह, मुरली मनोहर जोशी और उमा भारती मुख्य हैं। लेकिन समाजवादी पार्टी भी आसानी से हार मानने वाली नहीं है। मंदिर आंदोलन के जवाब में शुरू मंडल आंदोलन के युग में इस पार्टी का जन्म हुआ था।
1990 के दशक में जब मंडल की राजनीति जोर पकड़ रही थी, क्षेत्रीय ताकतों का उभार चरम पर था। इसी दौर में मुलायम सिंह ने अपनी पार्टी बनाई। इस पार्टी ने अपना फोकस पिछड़ों और मुसलमानों पर रखा। पिछड़ों में सबसे असरकारक यादवों के वह नेता बन गए। मंदिर आंदोलन में कारसेवकों से सख्ती बरतने की कोशिशों ने उन्हें मुस्लिमों का हीरो बना दिया। अपनी इसी रणनीति को हर चुनाव में वह धार देते हैं। उनकी हर सभा में मुद्दों से ज्यादा किसानों और मुसलमानों की बात होती है। वह खुलकर कहते हैं कि मुसलमानों का देश के विकास में बड़ा योगदान है। उनके सबसे विश्वस्त सहयोगी आजम खान ध्रुवीकरण के इस खेल को समझते हैं। मुस्लिम वोटरों का रुख बदलने की कला उन्हें बखूबी आती है। अब भले ही चुनाव आयोग उन पर पाबंदी लगाता रहे, मगर सपा अपने मकसद में कामयाब होती लग रही है। मुलायम सिंह इस बात की जी-तोड़ कोशिश कर रहे हैं कि प्रदेश में चुनाव सपा बनाम भाजपा हो जाए। उनकी यह रणनीति कुछ हद तक कामयाब होती दिख भी रही है।
उत्तर प्रदेश में एक बड़ी दावेदार बहुजन समाज पार्टी है। यह पार्टी किसी भी राजनीतिक दल का समीकरण बिगाड़ने का दम रखती है। इसके वोट पूरे प्रदेश में मायावती के नाम पर पड़ते हैं, किसी उम्मीदवार के नाम पर नहीं। सत्ता में आने के लिए 2007 के विधानसभा चुनावों में इस पार्टी ने एक अद्भुत प्रयोग कर दिया था, दलितों और ब्राह्मणों का गठजोड़ खड़ा करके। इस नई सोशल इंजीनियरिंग ने बसपा को पूर्ण बहुमत के साथ प्रदेश की सत्ता सौंप दी। इस चुनाव में बसपा का शोर कहीं नहीं दिख रहा है। लेकिन बसपा की शैली ही अलग है। जमीनी कार्यकर्ताओं से चलने वाली इस पार्टी की कार्यशैली आरएसएस से मिलती-जुलती है। इसका तामझाम में कम, काम में अधिक यकीन है। बसपा को अपने वोट पता हैं। अपने वोटरों की नब्ज पता है। जब इन वोटों पर कोई चोट करता है, तो मायावती बगैर देरी किए पलटवार करती हैं।
सोमवार को जब लखीमपुर में नरेंद्र मोदी ने कहा कि बाबा साहेब अंबेडकर का कांग्रेस ने सम्मान नहीं किया। उन्हें भारत रत्न भी भाजपा के समर्थन वाली सरकार के दौर में ही मिला, तो कुछ ही देर बाद मायावाती ने प्रेस कॉन्फ्रेस की और मोदी पर पलटवार किया। उनकी सोशल इंजीनियरिंग का स्वर्ण चेहरा हैं सतीश मिश्र। बसपा को पूरा यकीन है कि इस बार हवा का रुख बदलेगा ही। इन तमाम समीकरणों के बीच असल मुद्दे गायब हैं। जातिवाद और संप्रदायवाद ही इस प्रदेश की नियति बन गया है। कांग्रेस के बड़े नेता आखिरी क्षणों में पूरी कोशिश कर रहे हैं कि मुस्लिमों का रुख मोड़ दें। नई राजनीति की बात करने वाले आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल भी इसी में उम्मीद की किरण तलाश रहे हैं। उनकी उम्मीद भी मुस्लिम वोट और ध्रुवीकरण के भरोसे है। हालांकि, प्रदेश को इंतजार है तो बस विकास का, जिसका आश्वासन फिलहाल कहीं नहीं दिख रहा।