एहसासों के जहीन खजांची
यूं तो कुछ चीजें नवाजिशों से ऊपर होती हैं, पर यह सच है कि जब आपको सिने दुनिया का सबसे बड़ा अवॉर्ड मिलने की खबर सुनते हैं, तो खुशी का एक भीगा हुआ फाहा हमारे गालों को छू जाता है। दादा साहब फाल्के जहां...
यूं तो कुछ चीजें नवाजिशों से ऊपर होती हैं, पर यह सच है कि जब आपको सिने दुनिया का सबसे बड़ा अवॉर्ड मिलने की खबर सुनते हैं, तो खुशी का एक भीगा हुआ फाहा हमारे गालों को छू जाता है। दादा साहब फाल्के जहां भी होंगे, आज खुश होंगे। नाम भी क्या खूब रखा है, ‘गुलजार।’ जो हमेशा खिला रहेगा। ताजादम बना रहेगा। गुलजार दद्दा, वह आप ही थे, जिन्होंने हमें बताया कि हमारे आस-पास के लफ्ज कितने जिंदा हैं। उन्हें सुनना कुछ ऐसा था कि जैसे घास पर देर तक पसरे हुए खुद घास हो गए हों। वैसा ही जमीनी और असल एहसास आपके लफ्जों में होता रहा और बहुत कुछ पीछे छूटने से बचता रहा। दद्दा, आपको जितनी बार पढ़ते हैं, ताजा लगता है। अरण्य को कितनी बार भी देख लो, कौतुक बना रहता है। हो सकता है कि पोखर देख लिया हो, पर नाजुक कमलडंडियों पर नजर न गई हो।
किसी दरख्त पर बुलबुल का कोई खूबसूरत घोंसला देखने से छूट गया हो..। साहिर लुधियानवी के बारे में हम फा से कहते हैं कि उनके लिखे हुए में एक राजनीतिक-सामाजिक पहलू भी है। कुछ लोग असहमत हों शायद, पर हमें लगता है कि आपने भी उसे एक जरूरी हिस्से की तरह बनाए रखा। आंखों को वीजा नहीं लगता, सपनों की सरहद होती नहीं जैसी पंक्ति इस दौर को आपका बेशकीमती तोहफा है। फिर उस नज्म को कौन भूल सकता है, जिसमें ख्वाब की दस्तक पर सरहद पार से कुछ मेहमान आते हैं और फिर गोलियों के चलने के साथ हसीन ख्वाबों का खून हो जाता है?
आज तक वेब पोर्टल में कुलदीप मिश्र