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क्यों महत्वपूर्ण हैं महिला मतदाता

सर्वेक्षण के आंकड़ों पर अगर यकीन करें, तो शायद ही भारतीय चुनाव में कहीं महिला वोटों की मौजूदगी दिखती है। महिलाएं शायद ही महिलाओं की तरह मतदान करती हैं। शायद ही वे किसी राजनीतिक दल को विशेष वरीयता...

क्यों महत्वपूर्ण हैं महिला मतदाता
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 04 Apr 2014 09:45 PM
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सर्वेक्षण के आंकड़ों पर अगर यकीन करें, तो शायद ही भारतीय चुनाव में कहीं महिला वोटों की मौजूदगी दिखती है। महिलाएं शायद ही महिलाओं की तरह मतदान करती हैं। शायद ही वे किसी राजनीतिक दल को विशेष वरीयता देती हैं, यहां तक कि उन दलों को भी नहीं, जिनकी अध्यक्ष महिला नेता हैं। जे जयललिता, ममता बनर्जी और मायावती, इनमें से कोई भी महिला वोटरों को अपनी ओर आकर्षित करने में सक्षम नहीं हो सकी हैं। साल 2009 के लोकसभा चुनाव में जयललिता की अन्नाद्रमुक पार्टी ने अपने सहयोगियों के साथ तमिलनाडु में 37 फीसदी मत हासिल किए। इस पार्टी को 37 प्रतिशत पुरुषों और 38 प्रतिशत महिलाओं के मत मिले। इसी तरह, पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस अपनी सहयोगी कांग्रेस के साथ कुल मतदान के 45 प्रतिशत वोट बटोर पाई। उसे 46 प्रतिशत पुरुष मतदाताओं और 43 प्रतिशत महिला मतदाताओं के वोट मिले। उत्तर प्रदेश में मायावती के नेतृत्व में बहुजन समाज पार्टी ने 2009 के लोकसभा चुनाव में 27 प्रतिशत वोट प्राप्त किए। इनमें से 28 प्रतिशत पुरुष और 27 प्रतिशत महिलाएं थीं।

पिछले साल राज्यों के हुए चुनावों में भी महिला मतदाताओं की विशेष वरीयता का कुछ पता नहीं चला था। हालांकि, यह रुझान अब बदलता हुआ दिख रहा है। हाल में हुए सर्वेक्षण बताते हैं कि इस बार पश्चिम बंगाल में महिला मतदाताओं का झुकाव ममता बनर्जी की तरफ अधिक है। इसी तरह, तमिलनाडु में जयललिता और उत्तर प्रदेश में मायावती के पक्ष में इनका झुकाव ज्यादा है। ये सर्वेक्षण सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज द्वारा कराए गए हैं। न सिर्फ यह रुझान तेजी से बढ़ा है, बल्कि महिला नेताओं की कमान वाली सियासी पार्टियों को महिला मतदाताओं के बीच विशेष वरीयता मिल रही है। हाल के वर्षों में यह भी साफ तौर पर दिखाई दिया है कि मतदान में महिलाओं की भागीदारी पहले की अपेक्षा काफी अधिक हुई है। अब तक के सभी लोकसभा चुनावों में पुरुषों के मुकाबले कम महिलाएं मतदान करती रही हैं। खासकर 1950 और 1960 के दशक में यह दिखाई देता रहा है। यह अंतर दस प्रतिशत से भी अधिक रहा है। ज्यादातर राज्यों के चुनावों में भी यह रुझान दिखता आया है। लेकिन अब यह स्थिति भी बदल रही है।

लगभग सभी राज्यों में न केवल महिला मतों में इजाफा हुआ है, बल्कि यह भी गौर करने वाली बात है कि हाल के समय में कई जगह महिलाओं ने पुरुषों के मुकाबले अधिक वोट डाले हैं। साल 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में पुरुष मतों की तुलना में महिला मत 3.4 प्रतिशत अधिक थे। यह अंतर, यानी कि वोट डालने के लिए पुरुषों की तुलना में अधिक महिलाओं का घर से निकलना, उत्तराखंड, गोवा और हिमाचल प्रदेश के 2012 के चुनाव में प्रमुखता से दिखा। यही नहीं, यह रुझान कई अन्य राज्यों में भी दिखा, जैसे कर्नाटक, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, पंजाब, पुडुचेरी, राजस्थान, तमिलनाडु, त्रिपुरा, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में। आज जब राजनीतिक दल 2014 के लोकसभा चुनावों के मद्देनजर नौजवानों को अपनी तरफ लामबंद करने के ठोस प्रयास कर रहे हैं, तब यह देखना दुखद है कि महिला मतदाताओं के लिए वे शायद ही कोई बड़ी कोशिश कर रहे हैं। अगर इस आम चुनाव में युवा मतदाताओं की तादाद सभी राजनीतिक पार्टियों को लुभा रही है, तब भी उनके पास महिला मतदाताओं को लुभाने की दमदार वजहें हैं।

अधिकतर संसदीय क्षेत्रों में महिला मतदाताओं की तादाद 50 फीसदी या इससे थोड़ी ही कम है। अगर हिस्सेदारी का स्तर एक मुद्दा है, तो युवा मतदाताओं की तुलना में महिला मतदाताओं का मत-प्रतिशत काफी अधिक होता है। साफ है, युवाओं की अपेक्षा महिला मतदाता किसी राजनीतिक पार्टी की चुनावी सफलता में अहम भूमिका निभा सकती हैं। विडंबना यह है कि जब राजनीतिक पार्टियों को महिला मतदाताओं की लामबंदी की अधिक कोशिशें करनी चाहिए थीं, तब उन्होंने टिकट बांटने उन्हें नजरअंदाज कर दिया। वैसे, आम चुनाव के लिए राजनीतिक पार्टियां अब भी अपने उम्मीदवार तय कर रही हैं, लेकिन टिकट बंटवारे के पुराने तरीके यह साफ कर देते हैं कि महिला उम्मीदवारों को किसी भी पार्टी की तरफ से समुचित हिस्सेदारी नहीं मिली है। इस बार के लोकसभा चुनाव के लिए बहुत कम महिला उम्मीदवारों का पर्चा भरना कोई अनोखी बात नहीं है। राजनीतिक पार्टियों ने पहले के चुनावों में भी यही रूढ़िवादी सोच अपनाई है। राजनीतिक पार्टियां, अक्सर महिलाओं को टिकट न देने की कई वजहें गिनाती रहती हैं। उनमें सबसे आम बहाना तो यह है कि महिला उम्मीदवारों में चुनाव जीतने की क्षमता की कमी होती है। लेकिन जमीनी स्तर पर यह कोई कारण नहीं हो सकता। 2004 और 2009 के लोकसभा चुनावों के नतीजे संकेत देते हैं कि महिलाओं में चुनाव जीतने की क्षमता पुरुषों से अधिक है।

दरअसल, महिला नेताओं को टिकट न देने का मूल कारण यह है कि राजनीतिक पार्टियां उन्हें वोट बैंक के रूप में नहीं देखती हैं। साथ ही, वे मानती हैं कि महिला उम्मीदवार पार्टी के पक्ष में औरतों को लामबंद नहीं कर सकतीं। कोई भी पार्टी यह यकीन नहीं करती कि चुनाव के मैदान में यदि महिला उम्मीदवार उतरती है, तो उसे महिलाएं वोट देंगी ही। लेकिन अब बदलाव के पर्याप्त संकेत मिल रहे हैं। महिला नेतृत्व वाली राजनीतिक पार्टियों के प्रति देश की महिलाओं का झुकाव बढ़ा है। यह कौन जानता है कि महिलाएं वास्तव में यही चाहती हों कि वे बड़ी संख्या में महिला उम्मीदवारों के पक्ष में वोट डालें? हाल के विधानसभा चुनावों में महिला मतों का प्रतिशत बढ़ना यह संकेत है कि चुनाव और चुनावी प्रक्रिया में महिलाएं अधिक सक्रिय हुई हैं। अब इसके आगे यह राजनीतिक पार्टियों के ऊपर है कि वे बदलाव की पहल करें।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 

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