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लालू की जेल यात्रा के बाद

कुछ पुरानी बात हो गई। एक शाम हम चार दोस्त हल्की-फुल्की गपशप कर रहे थे। अजीब मंडली थी। मैं पत्रकार, एक काबीना स्तर के मंत्री, एक नौकरशाह और एक कारोबारी। पता नहीं कैसे, चर्चा का रुख एक तत्कालीन...

लालू की जेल यात्रा के बाद
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 05 Oct 2013 09:38 PM
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कुछ पुरानी बात हो गई। एक शाम हम चार दोस्त हल्की-फुल्की गपशप कर रहे थे। अजीब मंडली थी। मैं पत्रकार, एक काबीना स्तर के मंत्री, एक नौकरशाह और एक कारोबारी। पता नहीं कैसे, चर्चा का रुख एक तत्कालीन मुख्यमंत्री की ओर चला गया। मुख्यमंत्री जी काफी दबंग माने जाते थे और सरकारी तंत्र के अपने ढंग से ‘सदुपयोग’ में माहिर भी। उनकी निरंकुशता पर विस्तार से विचार-विनिमय होने लगा। मंत्री जी पसोपेश में थे। पुराने दोस्तों का समर्थन करें या विरोध? कुछ समझाने के अंदाज में उन्होंने कहा कि भाई, एक बात तो मानोगे कि मुख्यमंत्री अपने प्रदेश में कुछ भी कर सकता है।

मैं उखड़ गया। मेरा कहना था कि इसी ‘कुछ भी’ ने इन लोगों को कानून की पकड़ से परे पहुंचा दिया है, जो न देश के लोगों के लिए अच्छा है और न लोकतंत्र के लिए। मंत्री जी भी तल्ख हो चले थे। उन्होंने कहा, भूलो मत। आज तक किसी बड़े नेता को सजा नहीं हुई है। आपका इस तरह से सबसे लड़ना भी ठीक नहीं है, नुकसान हो जाएगा। मैं अपनी बात पर अड़ गया और कहा कि जब कोई फायदा नहीं उठाया, तो नुकसान कैसा? फिर मुख्यमंत्री है, भगवान नहीं कि जो चाहे, सो कर ले। बाकी दो दोस्त सहमकर बीच-बचाव की मुद्रा में उतर आए थे। वह मंत्री आजकल सांसद हैं। इस नाते कानून बनाने का काम करते हैं। जब भी उन्हें टीवी पर देखता हूं, तो सोचता हूं कि संविधान की कसम खाकर उसे तोड़ने वाले लोग कब तक कानून बनाने का हक हासिल करते रहेंगे?

इसीलिए जब लालू यादव, जगन्नाथ मिश्र और उनके साथ तमाम महत्वपूर्ण लोगों को सजा हुई, तो लोकतंत्र में निरंकुश सत्ता नायकों से ऊबे हुए लोगों ने राहत की सांस ली। अब कम से कम कोई मंत्री या सांसद यह तो नहीं कह सकता कि मुख्यमंत्री अपने प्रदेश का मालिक होता है और वह कुछ भी कर सकता है। यहां एक बात साफ कर दूं। लालू यादव और जगन्नाथ मिश्र को अभी सिर्फ निचली अदालत ने दोषी करार दिया है। ऊपरी अदालतों के लिए उनके विकल्प खुले हुए हैं। हो सकता है कि वे कल बरी हो जाएं, पर इसमें कोई दो राय नहीं कि आने वाले हुक्मरानों के लिए यह मुकदमा एक मिसाल रहेगा। अब सांविधानिक पदों पर बैठा हुआ कोई भी व्यक्ति कानून को तोड़ने-मरोड़ने से पहले कई बार सोचेगा।

जरा सोचिए, देश के तमाम नेताओं पर किस-किस तरह के आरोप हैं! अशोक चह्वाण, जयललिता, मायावती, ए राजा, कनिमोझी, दयानिधि मारन, रमेश पोखरियाल ‘निशंक’, वीरभद्र सिंह, ओमप्रकाश चौटाला, येदियुरप्पा, मधु कोड़ा आदि पर आय से अधिक संपत्ति और भ्रष्टाचार के दजर्नों मामले लंबित हैं। कई मौजूदा और पूर्व सत्ताधीशों पर तो यौन शोषण तक के आरोप हैं। इनमें से कुछ तो जेल हो भी आए हैं और लौटकर फिर से राजनीति के नक्कारखाने का शोरगुल बढ़ा रहे हैं। उन्हें यकीन है कि सत्ता से उनका चोली-दामन का साथ है, जो छूटेगा नहीं। बतौर उदाहरण जयललिता को ही ले लीजिए। उन्हें भ्रष्टाचार के एक मामले में जेल भेजा गया था और अब वह तमिलनाडु की मुख्यमंत्री हैं। यकीनन दिल्ली की अगली सरकार के निर्माण में भी उनकी भूमिका होगी। आरोप लग सकते हैं कि भारतीय राजनीति में उनका दमखम सूबाई राजधानी से देश के सर्वोच्च सत्ता सदन तक स्वीकारा जाएगा और जांच एजेंसियों पर उन्हें मुक्त करने का दबाव बढ़ेगा। दुर्भाग्य से वह अकेली नहीं हैं, उन जैसे दर्जनों हैं। अब वक्त आ गया है कि हमारे सत्ता सदन गंभीरतापूर्वक ऐसे लोगों से मुक्ति पाने के उपाय खोजें।

1960 के दशक के उत्तरार्ध में जब क्षेत्रीय दल सिर उठाने लगे थे, तब भी यह बात उठी थी कि इससे भारतीय लोकतंत्र की पवित्रता और एकता को खतरा पहुंचेगा। सौभाग्य से हमारी एकता कायम रही, पर इसका क्रेडिट इन भ्रष्ट राजनेताओं को नहीं, बल्कि देश की जनता को जाता है, जिसने बरसों से भारतीय राष्ट्र-राज्य की गरिमा पर कभी आंच नहीं आने दी। यह सच है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक अगर हमारा देश एक है, तो वह भारतीयों की वजह से। जिस तरह इस देश का आम आदमी राष्ट्रीय एकता के प्रति वचनवद्ध है, वैसे ही हमारे राजनीतिज्ञों का बड़ा तबका अपने पद के दुरुपयोग के लिए कटिबद्ध। यकीन न हो, तो आप कन्याकुमारी से कश्मीर तक विधायकों, सांसदों, मंत्रियों और सार्वजनिक जीवन में सक्रिय लोगों की सूची उठाकर देख लीजिए। सिर शर्म से झुक जाएगा।

हमारे नेता निरंकुश होकर इसलिए भ्रष्टाचार कर पाते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि अदालती प्रक्रिया लंबी चलेगी और तब तक वे समाज को जाति, धर्म और क्षेत्र के आधार पर बांटकर हुकूमत करते रहेंगे। क्यों नहीं सार्वजनिक जीवन में सक्रिय लोगों पर लगे आरोपों के लिए समयबद्ध जांच और उनके निपटारे के लिए फास्ट-ट्रैक अदालतों का गठन किया जाए? जिस देश में दूध में पड़ी मक्खी को तुरंत निकाल फेंकने का मुहावरा प्रचलित हो, वहां सार्वजनिक जीवन की सफाई के लिए बरसों का विलंब क्यों? अगर ऐसा हो जाए, तो हमारी संसद और विधायिकाएं सही मायने में इक्कीसवीं सदी के भारत का प्रतिनिधित्व करेंगी। वहां बलात्कार, चोरी, लूट, हत्या और सार्वजनिक संपत्ति का दुरुपयोग करने के मामलों के आरोपी नहीं होंगे, बल्कि ऐसे लोग दिखाई देंगे, जो संसार की सबसे पुरानी सभ्यता और संस्कृति वाले देश के सही नुमाइंदे होंगे। यहां यह भी गौरतलब है कि इस तरह के ताकतवर लोगों के लिए जेल भी आरामगाह होती है। उन्हें उन तमाम सहूलियतों से नवाजा जाता है, जो आज भी निम्न मध्यम वर्ग के करोड़ों लोगों को किस्मत से हासिल होती हैं। जो लोग भ्रष्टाचार और कदाचार के आरोप में जेल जाते हैं, उन्हें करदाताओं की गाढ़ी कमाई से मौज मारने की इजाजत क्यों देनी चाहिए?

इन फैसलों के लिए यही सबसे मुफीद समय है। नरेंद्र मोदी भारतीय जनता पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी हैं। वह अपने हर भाषण में पानी पी-पीकर भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के खिलाफ तीखे शब्दबाण छोड़ रहे हैं। क्यों नहीं मोदी जी हर तरह के अपराध से मुक्त राजनीति की वकालत करते? क्यों नहीं यह वायदा करते कि यदि वह सत्ता में आए, तो इसके लिए और कड़े कानून बनाएंगे और फास्ट ट्रैक अदालतों का गठन करेंगे? वह यह तो जानते ही होंगे कि दागी अध्यादेश वापस कराकर राहुल गांधी ने फिलहाल उन पर बढ़त बना ली है। राहुल गांधी आगे भी अगर शुद्धीकरण की अपनी मुहिम पर कायम रहें, तभी लोगों को उनकी शख्सियत पर यकीन आएगा। सभी राष्ट्रीय पार्टियां 2014 के चुनावों के लिए यह घोषणा क्यों नहीं करतीं कि वे आपराधिक और भ्रष्ट छवि के लोगों को टिकट नहीं देंगी?

इस नेक काम के लिए कांग्रेस, भाजपा और माकपा को एक होना पड़ेगा। इन तीनों की विचारधारा भले ही मेल न खाती हो, पर ये राष्ट्रीय दल हैं। खुल्लमखुल्ला लूटपाट मचाने वाले क्षेत्रीय दलों के साथ समझौते कर कांग्रेस और भाजपा ने खुद को काफी क्षति पहुंचाई है। क्या वे सत्ता मोह से मुक्त होकर सच्ची और अच्छी राजनीति के लिए पहल करेंगे? अब जब दोनों पार्टियों में अपेक्षाकृत युवा नेतृत्व आगे आ रहा है, तो देश को उनसे इतनी अपेक्षा रखने का हक तो है ही।

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