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अटपटी संभावनाओं के सपनों का सच

आम मुसलमानों में यह संदेश फैलाने की कोशिश हो रही है कि गुजरा समय वापस नहीं आ सकता और मोदी से दुश्मनी में नुकसान ही नुकसान...

अटपटी संभावनाओं के सपनों का सच
Thu, 21 Feb 2013 10:43 PM
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मदनी साहब, आखिर यह माजरा क्या है? कयास पर कयास लग रहे हैं। लोग अपनी-अपनी अक्ल के घोड़े दौड़ा कर पता करने में लगे हैं। बीजेपी खुश है! माफ कीजिएगा, मुझे अचानक ‘रंगा खुश’ याद आ गया। बेचारी सेकुलर पार्टियों का तो मुंह ही उतर गया। सारे देश के मुल्ला-मौलवियों की नींद अचानक टूट गई। दारुल उलूम देवबंद जैसी संस्था से जुड़े और जमीयत उलेमा-ए-हिन्द के महासचिव मौलाना महमूद मदनी का दिल अगर नरेंद्र मोदी को लेकर पसीजने लगे, तो धमाका तो होगा ही।

वैसे मदनी साहब का कहना है कि उन्होंने अपने इंटरव्यू में सिर्फ जमीनी हकीकत का जिक्र किया था कि गुजरात में बहुत-से मुसलमानों ने इस बार मोदी को वोट दिया। बिहार में भी नीतीश कुमार के कारण कई जगहों पर मुसलमानों ने बीजेपी को वोट दिया है। यानी ‘बड़ा चेंज आ रहा है, सिचुएशन चेंज हो रही है और यकीनन गुजरात के लोग (मुसलमान) अलग तरीके से सोच रहे हैं।’ हालांकि, वह आगे साफ करते हैं कि जरूरी नहीं कि जो कुछ गुजरात और बिहार में घटित हो रहा है, उसका प्रतिबिंब पूरे देश में दिखे, लेकिन उन्होंने एक बेहद महत्वपूर्ण बात कही, जिसकी तरफ शायद लोगों का ध्यान नहीं गया। उन्होंने कहा, ‘2002 की दुर्घटना को जितने गर्व के साथ वह (मोदी) लेते आए हैं, वह इसमें सबसे बड़ी रुकावट है कि हम कह दें कि सब ठीक है।’ जब उनसे पूछा गया कि अब तो मोदी उन सब बातों की कोई चर्चा नहीं करते और सिर्फ विकास की बात करते हैं, तो मदनी साहब का जवाब था,‘कुछ अफसोस (गुजरात दंगों पर) होना चाहिए था। विकास इंसाफ के बगैर कैसे होगा?’ और मदनी ने यह भी साफ किया कि उनकी नजर में सेकुलर पार्टियां मोदी या बीजेपी से बेहतर नहीं हैं!

इसका क्या मतलब निकाला जाए? आखिर मौलाना महमूद मदनी अचानक ऐसी अटपटी संभावनाओं के स्वप्न क्यों बुनने लगे कि 2014 आते-आते मुसलमानों को बीजेपी और मोदी अच्छे भी लगने लग सकते हैं। और सेकुलर पार्टियों से मौलाना का मोहभंग अभी ही क्यों हुआ? क्या सचमुच मुसलमान सेकुलर पार्टियों से निराश हो चुके हैं और उन्हें नए ठिकाने की तलाश है? या फिर सचमुच मौलाना मोदी को विकास-पुरुष मानने लगे हैं और उन्हें लगता है कि अगर मोदी वाकई प्रधानमंत्री बनने ही वाले हैं, तो फिर देश के मुसलमान अपने गुजराती भाइयों से सीखते हुए क्यों न मोदी से दोस्ती के रिश्ते कायम करें। हो सकता है कि मौलाना को लगा हो कि अगर यूरोपियन यूनियन इतने बरसों के बाद मोदी से फिर संवाद शुरू करता है, तो मुसलमान भी अगर अपना नजरिया बदलने के बारे में सोचें, तो पहाड़ थोड़े ही टूट पड़ेगा। आखिर बिहार और गुजरात के उदाहरण सामने हैं।

पूरे इंटरव्यू में मौलाना मदनी ने एक बार भी नहीं कहा कि मोदी को माफी मांगनी चाहिए। शायद उन्हें मालूम है कि मोदी कतई माफी नहीं मांगेंगे, इसीलिए वह कहते हैं कि मोदी को दंगों पर अफसोस जताना चाहिए। यह सब बहुत चौंकाने वाला है, खासकर तब, जब यह शिगूफा उस देवबंद से आया हो, जिसने अभी डेढ़ साल पहले ही मोदी की तारीफ करने के आरोप में अपने गुजराती कुलपति मौलाना गुलाम वस्तानवी को बरखास्त कर दिया था और उनकी बरखास्तगी में मौलाना महमूद मदनी का बड़ा हाथ था। तब से अब तक स्थिति में सिर्फ एक बदलाव हुआ है, वह यह कि बहुत-से लोगों को लगने लगा है कि मोदी प्रधानमंत्री पद के तगड़े दावेदार हैं और अगर कहीं बाजी मोदी के हाथ लग ही गई, तो ऐसे में उनकी गोटियां सही जगह होनी चाहिए।
बहरहाल, मदनी साहब की दिली ख्वाहिश क्या है, वही जानें। यह हमारी चर्चा का विषय नहीं है। हम तो इस शिगूफे को खुरच-खुरच कर देखना चाहते हैं कि इसका मकसद आखिर क्या हो सकता है? मदनी के इंटरव्यू पर जिस तरह दनादन मुस्लिम धर्मगुरुओं की तीखी प्रतिक्रियाएं सामने आईं, उन्हें देखकर तो नहीं लगता कि मोदी के मामले में आम मुसलमानों के मन में अगले साल-डेढ़ साल में कोई नरमी आएगी। गुजरात का मुसलमान विकल्पहीनता की जिस लाचारी के तले घुट-घुटकर जीने को अभिशप्त है, वैसी कोई स्थिति देश भर में कहीं भी मुसलमानों के सामने नहीं है। उनके सामने विकल्प ही विकल्प हैं। पिछले कई चुनावों को देखें, तो मुस्लिम वोटों में एक खास तरह का पैटर्न दिखता है, वह है, वोटों के नितांत स्थानीय ध्रुवीकरण का, यानी जिस चुनाव क्षेत्र में जो उम्मीदवार बीजेपी को हराने में सबसे ज्यादा सक्षम हो, उसे वोट दिया जाए। मुझे लगता है कि इस बार यह ध्रुवीकरण पहले से और भी ज्यादा मजबूती से होगा।

तो फिर यह शिगूफा क्यों? मोदी भी जानते हैं और मदनी भी कि हमेशा से बीजेपी के विरुद्ध रहे मुस्लिम वोटर को ऐसे रातों-रात बहलाया नहीं जा सकता। लेकिन इस तरह की बातें अगर हवा में तैरती रहें, तो मोदी को दो बड़े फायदे होंगे। पहला यह कि मुसलमानों में उनके समर्थक कुछ ऐसे प्रभावशाली प्रवक्ता निकाल आएंगे, जो आम मुसलमानों के बीच धीरे-धीरे यह संदेश फैलाते रहें कि मोदी से दुश्मनी पालने में नुकसान ही नुकसान है। न गुजरा हुआ समय वापस लाया जा सकता है और न ही पहले हो चुके नुकसान की भरपायी हो सकती है। भलाई इसी में है कि मुसलमान पिछली बातों को भूलकर विकास की गाड़ी में सवार हो लें। ऐसे प्रचार से मुसलमानों के विरोध की धार कुंद होती जाएगी। दूसरा फायदा यह होगा कि मोदी एक तरफ तो दुनिया को यह दिखाने में कामयाब हो जाएंगे कि मुसलमानों में भी उनकी स्वीकार्यता धीरे-धीरे बढ़ रही है और दूसरी तरफ वह ‘सेकुलर माइंडसेट’ वाले हिंदू वोटरों के बीच भी अपनी धुली छवि के साथ विकास के अपने झुनझुने की अपील बढ़ा पाएंगे।

मोदी युद्धकला के सिद्धहस्त खिलाड़ी हैं, प्रचार युद्ध में उनका कोई जवाब नहीं। ‘इमेज वॉर’ की बारीकियों को उनसे बेहतर भला और कौन समझता है, इसका सबूत वह पिछले विधानसभा चुनाव में और अभी यूरोपियन यूनियन के मामले में दे चुके हैं। यह नया शिगूफा भी उसी की एक कड़ी है। अभी-अभी अपनी रणनीति में भी उन्होंने व्यापक बदलाव किया है और महाकुंभ में मथी गई ‘हिन्दू लहर’ पर सवार होने की बजाय फिलहाल ‘इन्क्लूसिव डेवलपमेंट’ के मुखौटे को पहनने का फैसला किया है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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