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मासूमियत की आड़ में अपराधी बचने न पाएं

दिल्ली में सामूहिक बलात्कार कांड में पुलिस ने पांच अभियुक्तों के खिलाफ आरोप-पत्र दाखिल कर दिए, किंतु छठे को इसमें शामिल नहीं किया गया है, क्योंकि वह नाबालिग होने का दावा कर रहा...

मासूमियत की आड़ में अपराधी बचने न पाएं
Fri, 04 Jan 2013 07:35 PM
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दिल्ली में सामूहिक बलात्कार कांड में पुलिस ने पांच अभियुक्तों के खिलाफ आरोप-पत्र दाखिल कर दिए, किंतु छठे को इसमें शामिल नहीं किया गया है, क्योंकि वह नाबालिग होने का दावा कर रहा है। पुलिस को अभी हड्डी की जांच के लिए अदालती निर्देश की प्रतीक्षा है। छठे अपराधी द्वारा प्रस्तुत जन्म प्रमाण-पत्र के अनुसार, उसकी उम्र 18 वर्ष से कुछ महीने कम है। किशोर न्याय (बाल सुरक्षा) कानून, 2000 के अनुसार, 18 वर्ष से कम उम्र का व्यक्ति किशोर माना जाएगा और अगर वह कोई अपराध करता है, तो उसकी सुनवाई भी किशोर (जुवेनाइल) अदालत में होगी और दोषी पाए जाने पर उसे सामान्य जेल में न रखकर रिमांड होम या सुधारगृह में रखा जाएगा। किशोर अपराधियों को अधिकतम तीन वर्ष की ही कैद हो सकती है। ताजा कांड के संदर्भ में जो ब्योरे मिल रहे हैं, उनके मुताबिक, छठे अपराधी ने ही सबसे जयादा बर्बरता की। इसलिए यह मांग उठी है कि कानून में संशोधन कर किशोर की परिभाषा बदली जाए और उसकी उम्र 18 वर्ष से कम की जाए।

आखिर बाल अपराधियों के लिए अलग कानून बनाने की जरूरत ही क्यों पड़ी? इसे समझने के लिए इतिहास में जाना पड़ेगा। 1919-20 की जेल कमिटी की रिपोर्ट में यह सुझाव दिया गया था कि बाल अपराधियों को दुर्दात अपराधियों से अलग रखने की जरूरत है, अगर समाज उनका पुनर्वास करना चाहता है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि बाल अपराधियों का यौन शोषण सहित कई प्रकार के शोषण जेल में होते हैं। इसके बाद 1921 में सर्वप्रथम मद्रास ने बाल अधिनियम बनाया और फिर अन्य राज्यों ने ऐसे कानून बनाये। तब यह राज्य का विषय माना जाता था और इस बारे में कोई केंद्रीय कानून नहीं था। 1985 में किशोर न्याय से संबंधित मानक बनाने के लिए संयुक्त राष्ट्र का अधिवेशन हुआ, जिसे बीजिंग रूल्स भी कहते हैं। इसे भारत ने भी स्वीकार किया। इसलिए 1986 में किशोर न्याय कानून बनाया गया, जिसमें 16 वर्ष के कम उम्र के लड़के एवं 18 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों को किशोर-किशोरी माना गया। यह भारतीय दंड विधान की धारा-361 पर आधारित था कि लड़कियों को लंबे समय तक सुरक्षा की जरूरत है। इसमें यह प्रावधान किया गया कि किशोर आरोपियों की गिरफ्तारी की प्रक्रिया अलग होगी व उनका मुकदमा किशोर न्याय बोर्ड में चलेगा।

सवाल उठता है कि क्या किशोर की परिभाषा में उम्र 18 से घटाई जानी चाहिए? यह एक तथ्य है कि आजकल बच्चे जल्द प्रौढ़ हो रहे हैं। इसके साथ ही पेशेवर अपराधी किशोरों का इस्तेमाल जघन्य अपराधों के लिए करते हैं। इस कारण इस पर विचार करने की जरूरत है, किंतु जज्बाती होकर नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि एक सुविचारित सोच होनी चाहिए। तब तो और, जब यूरोप के कई देशों में किशोर की उम्र 18 साल से बढ़ाने के लिए आंदोलन चल रहे हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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