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नौजवानों की हताशा महंगी पड़ेगी

अगर हम देश की युवा आबादी को सुशिक्षित और कुशल वर्कफोर्स में नहीं बदल सके, तो इसका खामियाजा देश को भुगतना...

नौजवानों की हताशा महंगी पड़ेगी
Wed, 02 Jan 2013 09:47 PM
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यह आशावादी व राष्ट्रभक्त भारतीय बनने का मौका है। इसका शायद इससे बेहतर अवसर पहले कभी नहीं आया। कहने का अर्थ यह नहीं है कि देश की मौजूदा भयभीत करने वाली चुनौतियां एकदम से खारिज हो गई हैं। गरीबी, निरक्षरता, बेरोजगारी, कुपोषण, तरह-तरह की बीमारियां और हर तरफ फैला जातिवाद, समुदाय व लिंग आधारित भेदभाव- इनसे हमारी बहुत बड़ी आबादी की रोजमर्रा की जिंदगी आज भी प्रभावित होती है या इनसे उनका साबका हर क्षण पड़ता है। यह आबादी इतनी बड़ी है कि हम इन्हें आंकड़ों में ठीक-ठीक आंक नहीं सकते। बावजूद इन सबके भारत आज पहले से कहीं बेहतर स्थिति में है। वह इन चुनौतियों से निपटने में पूरी तरह सक्षम है। हमारे पास एक वास्तविक अवसर है कि हम अपनी पूरी जिंदगी की चुनौतियों से मुकाबिल हों और उन पर विजय पाएं।

यह पूरी तरह साफ है कि 2013 और इसके बाद के वर्षो में भारत अपनी नई बुलंदियों पर पहुंचेगा। और लंबे समय से दबे हमारे इस सामथ्र्य को उभारने और मजबूत करने का काम शिक्षा व्यवस्था करेगी। वैसे, हम इस मामले में खुशकिस्मत हैं कि हमें अतुलनीय बुद्धि, विशाल दृष्टिकोण और गहरे सत्यनिष्ठ लोगों के समूह का सान्निध्य मिला, जो अपने-अपने क्षेत्र में मिसाल देने योग्य हैं और जो हमारे संस्थापक पिता भी हैं। भारत अपनी अंतरात्मा की आवाज महात्मा गांधी में पाता है, तो राजनीतिक अभिव्यक्ति पंडित जवाहरलाल नेहरू में। रवींद्रनाथ टैगोर में उसे सौंदर्य सिद्धांतों का मर्म मिलता है, तो प्रशासनिक सामंजस्य सरदार वल्लभ भाई पटेल में। उसे राष्ट्रवादी गर्व बोस में मिलता है, तो मिश्रित संस्कृति मौलाना अबुल कलाम आजाद में। इसके साथ ही अंबेडकर में वह अपनी सांविधानिक नैतिकता को पाता है। फिर भी हम अपनी किस्मत बनाने में नाकाम हैं। इसका एक अर्थ यह नहीं है कि उन महापुरुषों के दृष्टिकोण में कोई खामी थी, बल्कि यह नाकामी हमारी सामूहिक विफलता और हमारी चुनौतियों के बड़े आकार को दर्शाती है।

आजादी के बाद से राष्ट्र-निर्माण के हर पहलू में शिक्षा ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। नागरिकता का मजबूत बंधन हम भारतीयों को जोड़े हुए है। यह इसलिए मुमकिन हो सका है, क्योंकि कई पीढ़ियों के प्रतिबद्ध गुरुओं ने इसके लिए प्रयास किए। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि हमारी शिक्षा में हमारे सांस्कृतिक मूल्यों और राष्ट्रीय आकांक्षाओं का समावेश हो। उन्होंनेविवरणात्मक ढांचा बनाया, जिनमें 21वीं सदी के भारत की कहानी है और जिसे प्रकट करना अभी बाकी है। लेकिन क्या यह उसी रफ्तार व दिशा से प्रकट होगी, जिसकी उम्मीद 50 करोड़ से ज्यादा युवा लगाए बैठे हैं? जाहिर है, यह बहुत कुछ इस पर निर्भर करेगा कि उन्हें हम किस तरह की शैक्षणिक अवसर मुहैया कराते हैं।

ऐसे में, शिक्षा के क्षेत्र में हमारे नीति-नियंताओं को अपने काम पूरे करने हैं। आर्थिक सुधारों के पिछले 20 वर्षो में हमारी अर्थव्यवस्था को एनिमल स्प्रिट (जबर्दस्त जुनून) मिली है। परंतु जैसा कि हम जानते हैं कि एनिमल (पशु) और भी लंबी छलांग लगा सकता है, तो जाहिर है कि विकास और समृद्धि की इस प्रक्रिया को निरंतर बनाए रखने और उसे ज्यादा तेज करने की जरूरत है। कहने की जरूरत नहीं कि मानव संसाधनों की गुणवत्ता में सुधार लाए बिना ये मुमकिन नहीं हैं। 

इसके लिए सरकार ने अपनी तरफ से एक बहु-आयामी नीति बनाई है, ताकि सार्वभौमिक, सस्ती व गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के राष्ट्रीय उद्देश्यों की पूर्ति हो सके। सर्वशिक्षा अभियान व मिड-डे मील योजना के कार्यक्षेत्र को बढ़ाया गया। 2009 में शिक्षा का अधिकार कानून बना और माध्यमिक स्तर की शिक्षा के लिए राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान चलाया गया। नए-नए विश्वविद्यालय खोले गए। कई आईआईटी, एनआईटी, आईआईआईटी और आईआईएम खोलने की मंजूरी मिली। इसके अलावा, व्यावसायिक शिक्षा की गुणवत्ता और कार्यसीमा को बढ़ाने के लिए एक साथ ही कई योजनाएं चलाई गईं। साफ है, सरकार ने शिक्षा के हरेक स्तर के उत्थान के लिए नई योजनाएं बनाकर उन्हें पूंजी भी मुहैया कराई है। लेकिन हम यह भी जानते हैं कि हमने जो किया, इतने बड़े देश में वह अपने आप में काफी नहीं है।

पच्चीस साल से कम आयु की इस विशाल आबादी को शिक्षित व प्रशिक्षित करना एक बड़ी चुनौती है। सरकार के लिए अपने संसाधनों के बूते इससे निपटना आसान नहीं है। इसी वजह से इस क्षेत्र में बीते दो दशकों में सरकार की निजी क्षेत्रों से साङोदारी बढ़ी है। अब तो विदेशी विश्वविद्यालय भी भारत में अपने शैक्षणिक संस्थानों को खोलने के प्रति गहरी इच्छा जता रहे हैं। हालांकि, इस सामाजिक संवेदनशील क्षेत्र में निजी संस्थानों के प्रवेश को लेकर चिंताएं हमारे सामने आ रही हैं, खासकर उन संस्थानों तक सबकी पहुंच व उनकी शिक्षा की गुणवत्ता के संबंध में। इनकी पहचान करने व इन्हें दूर करने के लिए सरकार ने एक विधेयक बनाया है। यह विधेयक जब पारित होकर कानून बनेगा, तो हमें शिक्षा का एक मजबूत नियामक ढांचा प्राप्त होगा, जो हमारे समाज व हमारी अर्थव्यवस्था के लिए भी महत्वपूर्ण होगा।

अगले 20 से भी अधिक वर्षों तक भारत को आठ फीसदी या इससे ज्यादा की विकास दर की चुनौती व संभावना, दोनों के लिए लगातार प्रयास करना होगा। युवा और कामकाजी आबादी के मामले में हम पहले नंबर पर होंगे। इस युवा आबादी की उत्पादन क्षमता अधिक होगी। इसके लिए सबसे पहली आवश्यकता है कि इस आबादी को एक सुशिक्षित व कुशल वर्कफोर्स में बदलना। हम यह बखूबी जानते हैं कि नाकामी की कीमत काफी ज्यादा होती है। नक्सलवादी आंदोलन से पता चलता है कि निराश और बेरोजगार युवा क्या बन सकते हैं। इसलिए हम सभी को और अधिक दृढ़ता से कामयाबी को हासिल करना होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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