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हार के आगे

फिल्म देख रहे थे वे। सेलवेस्टर स्टोलेन के एक संवाद पर ठहर गए थे। फिल्म खत्म हो गई, लेकिन वह संवाद दिमाग में घूमता...

हार के आगे
Mon, 31 Dec 2012 07:24 PM
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फिल्म देख रहे थे वे। सेलवेस्टर स्टोलेन के एक संवाद पर ठहर गए थे। फिल्म खत्म हो गई, लेकिन वह संवाद दिमाग में घूमता रहा। दो बार हैवीवेट विश्व चैंपियन मुक्केबाज रॉकी ने फिल्म में कहा कि मारना उतना अहम नहीं है जितना सहना और चोट खा-खाकर उठना। इस संवाद ने उनकी सोच बदल दी।

दरअसल हम चोट खाने से डरते हैं और चोट खाकर अक्सर खुद पर तरस खाने लगते हैं और चाहते हैं कि हमें दुनिया की सहानुभूति मिले। विख्यात साइकालॉजिस्ट अल्बर्ट बेंडुरा ने कहा कि हम हारने के बाद जीत की प्रक्रिया से अधिक हार को लेकर खुद पर तरस खाने में व्यस्त रहते हैं। यह दौर जैसे ही थोड़ा लंबा खिंचता है हमारे अवचेतन में ये चीजें पैठ जाती हैं। बेंडुरा कहते हैं कि हार के बाद खुद को अपमानित समझने की सोच से हमें बचना चाहिए। आप सहन करने की ताकत बढ़ाएं तो आपके वार करने की ताकत खुद ब खुद बढ़ जाएगी।

जॉर्ज क्लूनी को 15 साल की उम्र में लकवा मार गया। उनकी एक आंख ने काम करना बंद कर दिया, उनका चयन बेसबॉल की टीम में नहीं हुआ। बगैर डिग्री लिए कॉलेज छोड़ने पर पिता ने साथ छोड़ा, जेब में एक पाई नहीं और हॉलीवुड को निकले। वहां भी प्रतिकूल स्थितियां मिलीं। सारी चोटों को उन्होंने जमा किया और आखिर चोट एक अदम्य ऊर्जा के तौर पर दिखी। ऐसा नहीं कि क्लूनी हमसे अलग हैं। उनकी तरह हम भी चोट खाते हैं, लेकिन इनसे हम कमजोर हो जाते हैं, ऊर्जावान नहीं।

हम दुनिया के सारे महान लोगों में एक बात कॉमन पाते हैं, वह यह कि वे खुद पर कभी तरस नहीं खाते। उनके लिए गिर कर उठना ज्यादा अहम है बनिस्पत गिरने से बचने के लिए सावधान मुद्रा में रहना। शायद ही कोई ऐसा सफल व्यक्ति हो जिसने जीवन में जीत से कम हार देखी हो। रॉकी भी तो केवल दो बार चैंपियन बने और हारे दर्जनों बार।    

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